नीम भारतीय उपमहाद्वीप का एक सदाबहार वृक्ष है यह एशिया, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका और मध्य व दक्षिण अमेरिका के अनेक अन्य देशों में भी व्यापक रूप से उगता है। यह वृक्ष लवणीय व क्षारीय मि़ट्टी वाली भूमियों तथा अन्य बंजर भूमियों में आसानी से उग आता है। इसे वीथियों में, शोभाकारी वृक्ष के रूप में, कृषि वानिकी के लिए और सड़कों के किनारे छाया के लिए उगाया जाता है। सदियों से यह वृक्ष अपने औषधीय व कीटनाशी गुणों के कारण भारतीय जनमानस में आदर का पात्र रहा है। चिकित्सा की आयुर्वेद व यूनानी पद्धतियों में औषधियां तैयार करने के लिए इस वृक्ष के विभिन्न भागों का उपयोग किया जाता है। शायद ही कोई ऐसा रोग हो जिसके उपचार में नीम का उल्लेख न हुआ हो।
सदियों पुरानी प्रथा रही है कि भंडारित गेहूं, चावल व अन्य अनाजों में भृंगों, कीटों व अन्य नाशक जीवों से बचाव के लिए नीम की पत्तियों को कपडे में लपेट कर रखा जाता है। वर्तमान में, कृषि में नाशीजीव नियंत्रण के एजेंट के रूप में नीम की सशक्त भूमिका को स्वीकार किया गया है। विषैले कृत्रिम नाशकजीव नाशियों के हानिकारक प्रभावों के प्रति जनसामान्य की निरंतर बढती हुई चिन्ता को ध्यान में रखते हुए नीम के उत्पादों को इन कृत्रिम नाशकजीव नाशियों का श्रेष्ठ विकल्प माना गया है। कृत्रिम नाशकजीव नाशियों से जुडी समस्याएं जैसे नाशकजीव प्रतिरोध, पर्यावरणीय संदूषण, खाद्य पदार्थो, चारा और रेशों में विषाक्त अपशिष्ट, चिरकालिक आविषालुता, गैर लक्षित जीवों में व्यवधान आदि नीम पर आधारित नाशकजीव नाशियों के उपयोग से लगभग समाप्त ही हो जाती है। नीम पर किए गए आरंभिक अध्ययन मुख्यतया इसकी खली के नाशकजीव नाशी मानों के साथ इसके खाद संबंधी गुणों व मिट्टी की दशा को सुधारने से संबंधित थे। पिछली शताब्दी के 60 के दशक में संस्थान के रसायन विज्ञानियों ने नीम के कार्बनिक विलायकों में जैव सक्रिय रसायनों का उपस्थित होना सिद्ध किया। 1962 में संस्थान के कीट विज्ञानियों ने नीम के कीटनाशी गुणों की खोज की। यह पाया गया कि निबौलियों को पानी में घोलकर तैयार किया गया घोल प्रवासी व रेगिस्तानी टिडि्डयों के आहार को अखाद्य बना देता है। इस घोल को जब 0.001 प्रतिशत की सांद्रता से 1962 में टिडि्डयों के आक्रमण के दौरान जब संस्थान के खेतों में खडी फसलों पर छिडका गया तो उससे फसलों का टिडि्डयों से सफलतापूर्वक बचाव हुआ। रेगिस्सतानी टिडि्डयां खडी फसल पर बैठी तो जरूर लेकिन उन्हें आहार नहीं बना सकी। टिडि्डयों के दल ने आसपास खडे नीम के वृक्षों पर भी आक्रमण नहीं किया। इन निष्कर्षों से पूरी दुनिया का ध्यान नीम की ओर आकृष्ट हुआ तथा इसका उल्लेख रैकल कार्सन ने अपनी पुस्तक ''साइलेंट स्प्रिंग'' में मनुष्य व उसके पर्यावरण को कृत्रिम नाशकजीवनाशियों से होने वाले संभावित खतरों का जिक्र करते हुए किया।
नीम विभिन्न उपयोगी उत्पादों का बार-बार प्रयोग में लाया जाने वाला स्त्रोत है। इसका उपयोग औषधियों, साबुन बनाने, नाशकजीव नियंत्रण, नाइट्रीकरण निरोधक, धीमे पोषक तत्व विमोचित करने वाली खाद ,पशुओं के चारे, ईंधन ,उर्जा आदि के लिए किया जाता है। यह नाशीजीवनाशियों तथा संबंद्ध उत्पादों का अकेला सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्त्रोत के रूप में उभरा है। इस वृक्ष के सभी भाग जैसे पत्तियां, फूल, फल, बीज, गिरी, छिलका, लकड़ी और टहनियां आदि जैविक रूप से सक्रिय होते हैं और इनमें सर्वाधिक उपयोगी नीम की निबौली होती है। नीम पर आधारित जैव नाशकजीव नाशी विविध सक्रियता के गुणों से युक्त होते हैं और गैर लक्षित जीवों के प्रति अपेक्षाकृत सुरक्षित होते हैं।
कीटों, पादप सूत्रकृमियों, पौधों के रोगजनकों आदि के विरूद्ध अनेक क्रियाओं सहित नीम में व्यापक स्तर की सक्रियता देखी गई है। विश्वभर में नीम से 500 से अधिक नाशीजीव प्रजातियों का नियंत्रण होता है। कीटों के विरूद्ध इसके दीर्घकालिक प्रभाव विभिन्न प्रकार के खेत व घरेलू कीटो, नाशकजीवों, कृषि को संक्रमित करने वाले जीवाणुओं के विरूद्ध प्रभावी सिद्ध हुए हैं। कृषि में नीम के उत्पादों को धीमे नाइट्रोजन विमोचित करने वाले पदार्थो और नाइट्रीकरण निरोधकों के रूप में उपयोगी पाया गया है।
विश्व स्तरीय मान्यता
आरंभ में नीम की सक्रियता पर इस संस्थान के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए पर्यवेक्षणों पर विश्व समुदाय ने बड़ी हल्की प्रतिक्रिया व्यक्त की। जहां एक ओर विभिन्न राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय समूहों ने इन पर्यवेक्षणों के सत्यापनों पर प्रयोग किए वहीं असमरूप परिणाम प्राप्त हुए लेकिन जर्मनी में प्रो. एच श्मुत्तेरे के दल द्वारा नीम की सक्रियता की पुष्टि के बाद इस आश्चर्यजनक वृक्ष में अंतरराष्ट्रीय समुदाय की रूचि जागृत हुई। '''नीम इन एग्रीकल्चर' शीर्षक से संस्थान द्वारा 1983 और 1989 में प्रकाशित दो बुलेटिनों से विश्वभर में नीम पर हुए कार्य को समेकित किया गया। वर्ष 1984 में इस संस्थान द्वारा त्रैमासिक ''नीम न्यूज लेटर'' का प्रकाशन आरंभ किया गया जिसमें विश्व समुदाय की भागीदारी थी। एक अन्य प्रकाशन ''नीम; ए ट्री फॉर सोल्विंग ग्लोबल प्रॉब्ल्मस'' नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसिस, यू एस ए द्वारा 1992 में निकाला गया जिससे इस प्रकाशन को विश्व स्तर पर मान्यता मिली। बाद में, दो अन्य प्रकाशन, 1993 में ''नीम; रिसर्च एंड डेवेलपमेंट'' तथा 1995 में ''द नीम ट्री'' इस आश्चर्यजनक वृक्ष की क्षमता को उजागर करने में सहायक सिद्ध हुए। इसके पश्चात् अंतरराष्ट्रीय बाजार में बड़ी संख्या में नाशीजीव नियंत्रक व स्वास्थय देखभाल संबंधी उत्पाद दिखाई देने शुरू हुए। इनमें से अनेक अमेरिका तथा अन्य देशों में कृषि में विविध उपयोगों के लिए अब पंजीकृत है।
नीम के रसायनिक घटक
नीम में बड़ी संख्या में रसायनिक रूप से विविध और संरचनात्मक दृष्टि से जटिल जैव सक्रिय उत्पाद होते हैं। कुछ क्षमतावान यौगिकों में अनेक एजारडिरक्टिनॉइड, सेलानिन, डेसऐसिटाइल सेलानिन, निम्बिन, डेसएसिटाइल निम्बिन आदि सम्मिलित हैं। इस वृक्ष पर जैव सक्रियता से संबंधित अनुसंधान मुख्यत: एजारडिक्टिन पर केन्द्रित रहे क्योंकि इसकी प्रचुर व विशिष्ट क्रियाविधि है। इससे कीट अचानक ही नहीं मरते हैं वरन् उनके शरीरक्रियाविज्ञानी और व्यवहारिक क्रियाओं में परिवर्तन होता है, जिससे उनकी मृत्यु होती है।
एजारडेटिनॉइड 12 घनिष्ठ रूप से संबंद्ध मेलियासिनो का मिश्रण है जिसमें 0.3-0.6 प्रतिशत निबौली की गिरी होती है। अनके प्रक्रियाओं से कई निष्कर्ष तकनीकों द्वारा नीम के विविध रसायन तैयार किए गए हैं इनमें से अधिकांश प्रक्रियाओं को पेटेंट किया जा चुका है।
एजाडिरेक्टिन के दो अंशों नामत: डाइहाइड्रोफयूरानोएसिटॉला और डिकेलिन मॉइटिस की संरचना-सक्रियता से संबंधित अध्ययनों से यह सपष्ट हुआ कि इनमें से पहला महत्वपूर्ण प्रतिआहारक सक्रियता से युक्त है जबकि बाद वाले से कीटों की बढ़वार व विकास प्रभावित होते हैं। नीम रसायन विज्ञान में सबसे बड़ी उपलब्धि इम्पीरियल कॉलेज, लंदन में डॉ. स्टीवन ले के नेतृत्व में रसायन विज्ञानियों के एक समूह द्वारा इन दोनों रसायनों का संश्लेषण करना था।
एजाडिरेक्टिन, उष्मा, प्रकाश, जल, पी एच, सूक्ष्मजीवों आदि के प्रति अस्थिर है क्योंकि खेत अवस्थाओं में इसकी प्रभावी आयु अल्प होती है। इसके प्रभाव को स्थिर करने के अनेक प्रयास किए जा चुके हैं इसके अवकृत अपकर्ष नामत: डाइहाइड्रो-और टेट्राहाइड्रो-एजाडिरेक्टिन प्रकाश, उष्मा,नमी आदि के प्रति अधिक स्थिर होते हैं और इस प्रकार अपनी जैव सक्रियता बनाए रहते हैं।
भा.कृ.अ.सं. के प्रमुख योगदान
संस्थान ने पिछले चार दशकों के दौरान नीम अनुसंधान और विकास में अतयधिक योगदान किया है। रसायनविज्ञानियों ने जीवविज्ञानियों के साथ मिलकर नीम की बहु-पक्षीय क्रियाओं को उजागर किया है। अधिकांश मामलों में पहली बार नीम के विविध जैव सक्रिय घटकों को निषकर्षित करने और विलग करने के प्रोटोकॉल विकसित किए गए। कीटविज्ञानियों, रोगविज्ञानियों और सूत्रकृमिविज्ञानियों के सहयोग से नीम के नाशकजीवनाशी घटक का जैव मूल्यांकन-निर्देशित विलगन किया गया।
नाशकजीवनाशी उत्पाद
कच्चे अथवा मानक और स्थिर उत्पादों को तैयार करना व उनका निष्पादन नीम अनुसंधान एवं विकास के प्रमुख क्षेत्र रहे हैं।
तकनीकी कार्य
एजाडिरेक्टिन सांद्र युक्त कीटनाशी उत्पाद मानकीकृत करके उनका एजाडिरेक्टिन -ए अंश के आधार पर मान तय किया गया है। इसके परिणामस्वरूप इस प्रकार के सांद्रों के विकास में रूचि उत्पन्न हुई है जो वाणिज्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण सिद्ध हुए हैं।
विभिन्न शक्ति वाले एजाडिरेक्टिन सांद्रों को तैयार करने के लिए प्रौद्योगिकी का सफलतापूर्वक विकास किया गया है। नीम की निंबौली/गिरी को कुचलकर तेल निकाला जाता है और इस प्रकार तेल प्राप्त होता है बची हुई खली किसी उपयुक्त विलायक में मिलाकर काबर्निक विलायकों के मिश्रण में प्रयुक्त की ाजाती है ताकि निंबौली से जल में घुलनशील कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन तथा अन्य अवांछित पोलर को-एक्सट्रेक्टिव हटाए जा सके। कच्चे मेलियासिन सांद्र को एजाडिरेक्टिन पाउडर प्राप्त करने के लिए उपचारित किया जाता है। इस कच्चे उत्पाद को फ्लैशक्रोमेटोग्राफी द्वारा और शुद्ध किया जा सकता है। कम मात्रा में कार्बनिक विलायकों का उपयोग करके कम लागत वाली सत निकालने की तकनीकें विकसित की गई हैं।
एजाडिरेक्टिन -ए, बैण्ड-एच
एजाडिरेक्टिन -ए, बैण्ड-एच को शुद्ध रूप में विलग करने के लिए विभिन्न तकनीकों द्वारा और शुद्ध किया गया है ताकि एजाडिरेक्टिन पाउडर का सांद्र प्राप्त किया जा सके। इन की संरचनाओं की इलैक्ट्रो-स्प्रे आयनीकरण मास स्पैक्ट्रम द्वारा पुष्टि की गई है जिससे आण्विक आयन प्रदर्शित हुए हैं।
हाइड्रोजनीकृत एजाडिरेक्टिन
हाइड्रोजनीकृत एजाडिरेक्टिन, एजाडिरेक्टिन की तुलना में अपेक्षकृत अधिक अस्थिर होते हैं। इष्टतम/लगभग इष्टतम अवकरण स्थितियों के अंतर्गत एजाडिरेक्टिन-ए सांद्रों को 22-23 डी हाइड्रोएजाडिरेक्टिन-ए (भारतीय पेटेंट आवेदन संख्या 1590/डी ई एल/99) के रूप में मानकीकृत किया गया है (भारतीय पेटेंट आवेदन संख्या 1126/डी ई एल/2003)। इसमें उपयुक्त उत्प्रेरक की उपिस्थित में उचित शक्ति के तकनीकी एजाडिरेक्टिन सांद्रों का हाइड्रोजनीकरण सम्मिलित है। इस प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप 90 प्रतिश्त रूपांतरण होता है तथा 65-85 प्रतिशत उत्पादों की प्राप्ति होती है। आई एच एन एम आर और मास स्पेक्ट्रोस्कोपी द्वारा अवकृत एजाडिरक्टिनों की संरचनाओं को स्थापित किया गया है।