पृष्ठभूमि
भारत में संकर चावल प्रौद्योगिकी के विकास एवं उपयोग के प्रयास 1970 के दशक के आरंभ में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में प्रारंभ हुए। तथापि इस दिशा में क्रमबद्ध अनुसंधान कार्य 1989 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की एक मिशन मोड परियोजना के अंतर्गत आरंभ हुआ। सतत अनुसंधान कार्य के परिणामस्वरूप हमारे देश में चावल की अनेक संकर किस्में विकसित हुई हैं और इनमें से 23 को अधिकारिक रूप से जारी किया जा चुका है।
संकर चावल प्रौद्योगिकी को अपनाने में संकर बीज की उच्च लागत कुछ प्रमुख बाधाओं में से एक है। इस प्रौद्योगिकी को पर्याप्त रूप से न अपनाने का एक कारण संकर बीज की कम उपज है जो लगभग 1-1.5 टन/है. होती है। आवश्यकता इस बात की है कि बीज की लागत को कम करने के लिए इसकी उपज 2.5 टन/है. से अधिक की जाए। वर्तमान में संकर चावल बीजोत्पादन आंध्र प्रदेश के करीमनगर जिले में मुख्यत: रबी के मौसम में किया जाता है।
अत: संस्थान के बीज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संभाग ने मुख्य खरीफ मौसम में संकर चावल की बीजोत्पादन प्रौद्योगिकी के मानकीकरण का कार्यक्रम चलाया। एक दशक से अधिक समय तक किये गए सतत अनुसंधानों से उत्तर भारत के लिए आर्थिक रूप से व्यवहारिक प्रौद्योगिकी विकसित हुई। इस प्रौद्योगिकी का सबसे प्रमुख लाभ यह है कि इसके द्वारा संकर बीज को नवंबर-दिसंबर में काटकर, प्रसंस्कृत करके व उसका परीक्षण करके मार्च तक की अल्पावधि में ठंडी और शुष्क स्थितियों में भंडारित कर लिया जाता है। ये बीज किसानों को अप्रैल-मई में उपलब्ध हो जाता है। खरीफ के मौसम में संकर बीज को उगाने से दिसंबर-मार्च के दौरान उगाकर किए गए परीक्षण के द्वारा संकर बीज की शुद्धता की जांच करने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है।
चावल के संकर बीजोत्पादन के लिए जिब्रेलिक अम्ल की खुराक का इष्टतमीकरण
चावल के मादा पैतृक वंशक्रमों की लागत वन्य एबार्टिव (डब्ल्यू ए) साइटोप्लाज्म पर निर्भर करती है। क्योंकि पताका पत्ती आच्छद में संलग्न कंशिकाएं लगभग 25-33 प्रतिशत होती हैं जो परागण के लिए अनुपलब्ध होती हैं। पुष्पगुच्छ को निकालने के लिए पौधों की पत्तियों पर जिब्रेलिक अम्ल का छिड़काव व्यापक रूप से अपनाया जा रहा है जो पुष्पगुच्छों के निकलने की दर को बढ़ाने की एक अनिवार्य तकनीक है।