अनुसंधान के प्रमुख क्षेत्र
ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन
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जलवायु विविधता तथा परिवर्तन के प्रति संवेदनशीलता
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कृषि में औद्योगिक तथा शहरी अपशिष्टों का उपयोग
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ठोस अपशिष्टों का प्रबंध
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वायु प्रदूषण
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मृदा और फसल हेतु विज्ञान
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टिकाऊ भूमि उपयोग प्रणालियां
डीएसएस का फील्ड मूल्यांकन और उससे संबंधित सिफारिशें
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जैव ईंधन
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अनुसंधान सुविधाएं
पर्यावरणीय निगरानी और प्रभाव मूल्यांकन, विशेषकर ग्रीन हाउस गैसों, मृदा, वायु तथा जल प्रदूषण, ऊर्जा के पुनर्नव्य स्रोतों, अनुरेखन मॉडलिंग, जीआईएस, जैव विविधता तथा फसल और नाशकजीव परिस्थिति विज्ञान संबंधी अनुसंधानों के लिए अन्तरराष्ट्रीय मानक सुविधाएं। यहां की प्रयोगशालाएं आयन क्रोमेटोग्राफ, स्पेक्ट्रोफोटोमीटर, गैस क्रोमेटोग्राफ, एटॉमिक एब्जार्प्शन स्पेक्ट्रोफोटोमीटर, माइक्रोस्कोपों, थर्मल साइकलर (पीसीआर), इलैक्ट्रोफोरेसिस प्रणाली, जीआईएस/इमेज प्रोसेसिंग, मॉडलिंग तथा सांख्यिकीय सॉफ्टवेयरों, जीपीएस, कार्बन डाइऑक्साइड विश्लेषक, कैनोपी एनालाइज़र, जेल्टिक नाइट्रोजन एनालाइज़र, फर्मेंटर, जल डाक्यूमेंटेशन तथा फाइबरटैक एनालाइज़र से सुसज्जित हैं।
परामर्श सेवाएं
पर्यावरण प्रदूषण की निगरानी, अपशिष्ट प्रबंध, पर्यावरणीय प्रभाव का मूल्यांकन, उत्पादन प्रणालियों की मॉडलिंग, टिकाऊ संसाधन प्रबंध नियोजन तथा जैव ईंधन
मुख्य उपलब्धियां
- धान के खेतों से मीथेन उत्सर्जन के आंकड़े अन्तरराष्ट्रीय समुदाय के नीति निर्माताओं तथा वैज्ञानिकों के बीच चिंता का प्रमुख विषय रहे हैं। इस संभाग में हुए कार्य से यह परिणाम प्रदर्शित हुआ है कि भारतीय धान के खेतों से वैश्विक मीथेन बजट का वार्षिक योगदान 4 टीजी से कम है और यह 37 टीजी नहीं है जैसा कि पश्चिम एजेन्सियों ने प्रचार किया था। विभिन्न राज्यों में कार्बन डाइऑक्साइड समतुल्य उत्सर्जन का भी मात्रात्मक निर्धारण किया गया। संभाग द्वारा किये गए इन आकलनों से भारतीय नीति निर्माताओं को वैश्विक जलवायु परिवर्तन पर अपनी संधियां करने में बहुत सहायता मिली है। कृषि से मीथेन तथा नाइट्रसऑक्साइड उत्सर्जन को कम करने के लिए संभावित कार्य नीतियों की पहचान भी की गई है। संभाग में विभिन्न फसलों के अन्तर्गत मृदाओं से नाइट्रसऑक्साइड के देश विशिष्ट उत्सर्जन गुणांकों का आकलन किया जा रहा है और मृदा से उत्सर्जित होने वाली ग्रीन हाउस गैसों पर बड़े हुए तापमान व कार्बन डाइऑक्साइड के प्रभाव का अध्ययन भी किया जा रहा है।
- संस्थान में विभिन्न समय अवधियों में उच्च तापमान तथा कार्बन डाइऑक्साइड के प्रभाव के संदर्भ में फसलों/किस्मों की छटाई के लिए मुक्त वायु कार्बन डाइऑक्साइड समृद्धिकरण और तापमान घटक टनलें जैसी सुविधाएं विकसित की गई हैं। इन सुविधाओं का उपयोग भावी जलवायु परिवर्तनों तथा प्रायोगिक फसलों पर इनके प्रभावों के आकलन में किया जाएगा।
- भौतिक-रासायनिक तथा सूक्ष्म जैविक प्राचलों पर आधारित संकुल मृदा गुणवत्ता सूची का उपयोग करके चावल-गेहूं फसल प्रणालियों में मृदा गुणवत्ता पर संसाधन संरक्षण प्रौद्योगिकियों के प्रभाव का मूल्यांकन किया गया है।
- फसल बढ़वार अनुरूपण मॉडल विकसित किये गए हैं और इनका उपयोग भारत के विभिन्न भागों में अनाज फसलों की बढ़वार तथा उत्पादन पर वैश्विक जलवायु परिवर्तन के प्रत्यक्ष प्रभावों के मूल्यांकन हेतु किया गया है। परिणामों से पता चला है कि भारत में निकट भविष्य में अधिकांश अनाज वाली फसलों पर वैश्विक जलवायु परिवर्तन का कोई बड़ा प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ेगा और इस प्रकार देश की खाद्य सुरक्षा के समक्ष न्यूनतम संकट होगा। पखवाड़ा आधार पर मौसम प्राचलों में कुल विविधता के कारण रबी फसलों की उपज में होने वाली हानि का विश्लेषण किया गया। इसके लिए इन्फोक्रॉप अनुरूपण मॉडल का उपयोग किया गया। यह विश्लेषण पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में किया गया। इन अध्ययनों के आधार पर भारतीय कृषि बीमा कम्पनियों ने मौसम आधारित फसल बीमा प्रणाली विकसित की है जिसे जलवायु संबंधी जोखिमों से निपटने के लिए अपनाया जा सकता है। इसके अन्तर्गत राजस्थान और मध्य प्रदेश के लाखों किसानों को रबी मौसम की फसलों के लिए बीमा की सुविधा प्रदान की गई है।
- उद्योगों से निकलने वाले बर्हिस्राव में पर्याप्त मात्रा में पादप पोषक तत्व होते हैं जिनका उपयोग कृषि में पादप पोषकों के स्रोत के रूप में किया जा सकता है। हमारे अध्ययनों से यह प्रदर्शित हुआ है कि मीथेन तैयार करने के पश्चात् बचे आसवनी बर्हिस्राव तथा कागज कारखानों के बर्हिस्राव का उपयोग कृषि में पौधों के पोषक तत्वों के रूप में किया जा सकता है। बुवाई के पूर्व या बुवाई के पश्चात् आसवनी बर्हिस्राव का उपयोग करने से चावल, गेहूं, सरसों, गन्ना तथा मेंथा एरवेंसिस जैसे औषधीय पौधों की उपज में नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटाश की अनुशंसित खुराकों के उपयोग की तुलना में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। इस संभाग में कागज कारखानों के अपशिष्ट द्वारा कृषि फसलों की सिंचाई की उपयुक्तता पर भी कार्य किया गया है। संभाग ने आसवनी बर्हिस्राव के उपयोग के लिए प्रोटोकॉल विकसित किया है जिसे भारत सरकार के वन तथा पर्यावरण मंत्रालय ने भारत की सभी आसवनियों में कार्यान्वित किये जाने के लिए स्वीकार किया है। इस समय यह संभाग देश के विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों के लिए सीपीसीबी, नई दिल्ली के सहयोग से उनकी कृषि जलवायु संबंधी स्थितियों के लिए भी ऐसे ही प्रोटोकॉल विकसित करने से संबंधित कार्य कर रहा है।
- मानक वायवीय तथा अवायवीय विधियों और मल-जल के उपचार से मल-जल के खत्ते द्वारा नगरीय ठोस अपशिष्ट से तैयार कम्पोस्ट की भौतिक-रासायनिक गुणवत्ता का मूल्यांकन किया गया है ताकि उसमें मौजूद भारी धातुओं सहित गौण व सूक्ष्म पोषक तत्वों का पता चल सके और कृषि फसलों में इस कम्पोस्ट की उपयुक्तता से संबंधित प्रयोग भी किये गए हैं। ताप बिजली संयंत्रों से उत्पन्न होने वाली उड़न राख का निपटान एक बड़ी समस्या है क्योंकि इसे अन्य क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर उपयोग में नहीं लाया जा सकता है। पर्यावरण संभाग ने यह प्रदर्शित किया है कि इस राख को फसल में मिलाने पर उनकी उपज पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है तथा उड़न राख के उपयोग की सुरक्षित सीमा निर्धारित की गई है।
- संभाग में दिल्ली में सब्जियों पर वायु प्रदूषण के प्रभाव का अध्ययन किया गया है। दिल्ली के विभिन्न स्थानों से एकत्रित किये गए सब्जी के विभिन्न नमूनों में भारी धातुओं (जस्ता, तांबा, सीसा और कैडमियम) का उच्च स्तर का संदूषण पाया गया। सब्जियों को दो-तीन बार धोने से भारी धातुओं का संदूषण कम हो जाता है।
- संस्थान के प्रायोगिक फार्मों में फसलों की उत्पादकता पर सतह ओज़ोन के प्रभाव के मूल्यांकन की फीड सुविधा उपलब्ध है। शहरीकरण तथा वाहनों से होने वाले प्रदूषण के कारण वायु में ओज़ोन की सांद्रता बढ़ रही है। ओज़ोन के बढ़े हुए स्तर से पौधों की प्रकाश संश्लेषण दर घटी है। इसके साथ ही चावल की वृद्धि और उपस्थिति संबंधित जैव रासायनिक प्राचलों में भी गिरावट आई है।
- मृदा जैव विविधता में भेद करने के लिए पीएलएफए तकनीक का मानकीकरण किया गया है तथा अब इसका उपयोग नियमित रूप से सूक्ष्म जैविक विविधता पर पर्यावरण परिवर्तन के प्रभाव के मूल्यांकन में किया जा रहा है।
- विभिन्न प्रकार की मृदाओं में बीटी विष की पहचान के लिए एक रूपांतरित प्रोटोकॉल विकसित किया गया है। मिट्टी में बीटी विष के मात्रात्मक निर्धारण से मृदा पारिस्थितिक प्रणाली में पराजीनी पौधों के प्रभाव मूल्यांकन के लिए अन्तिम बिन्दु पहचान दृष्टिकोण विकसित हुआ है।
- पर्यावरण के प्रभाव के मूल्यांकन में सहायता पहुंचाने के लिए अनेक कम्प्यूटर आधारित निर्णय सहायक प्रणालियां विकसित की गई हैं। किस्मों की संवेदनशीलता, सस्यविज्ञानी प्रबंध, मृदा, मौसम, जलाक्रान्तता, पाला और नाशकजीवों के प्रति संवेदनशीलता से युक्त एक जेनेरिक गतिज फसल अनुरूपण मॉडल (इन्फोक्राप) विकसित किया गया है। इस मॉडल को चावल, गेहूं, मक्का, आलू तथा सोयाबीन की फसलों में जांचा और परखा जा चुका है। फसल बढ़वार की सभी प्रमुख प्रक्रियाओं, मृदा, जल व पोषक तत्व संतुलनों, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन तथा फसल-नाशकजीव अन्तरक्रियाओं के लिए मॉडल तैयार किये गए हैं। इनका उपयोग उपज क्षमता तथा वास्तविक उपज के बीच के अन्तर का आकलन करने, जलवायु विविधता तथा जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का मूल्यांकन करने, प्रबंध-रोपण तिथियों को इष्टतम बनाने, किस्म, सिंचाई व नाइट्रोजन उर्वरक का उपयोग करने, नाशकजीवों की अन्तरक्रियाओं द्वारा पर्यावरण के प्रबंध से जीन प्ररूपों का पता लगाने, उपज का पूर्वानुमान लगाने, नाशकजीवों के कारण उपज में होने वाली क्षति का मूल्यांकन करने तथा ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का आकलन करने के लिए किया जा रहा है।
- संभाग ने व्यावहारिक रूप से उपयोग में लाए जाने वाले कॉपी राइट युक्त अनेक उपयोगी उपकरण व युक्तियां विकसित की हैं जैसे इम्पास, यूएसएआर संसाधन, केडब्ल्यू-जीआईयूएच-एमयूएसएलई और एआरसी-व्यू-एसडब्ल्यूएटी-एलपी। इनका उपयोग विभिन्न प्रकार की जल विज्ञानी स्थितियों, जल प्रबंध संबंधी विकल्पों व सिंचित लवण प्रभावित कृषि भूमियों पर फसल रोटेशन अनुसूचियां तैयार करने में किया जा रहा है। इसके साथ ही इन्हें जल के वास्तविक उपयोग के मानचित्रण, मृदा व जल उत्पादकता व भारत के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सब्जियों के स्वास्थ्य के आकलन और नम क्षेत्र में भौतिक रूप से अपघटित प्रगणन क्षेत्रों में प्रभावी भूमि उपयोग/संरक्षण कार्यों की योजना बनाने का प्रस्ताव करने और गैर-मापे गए थालों से रन-ऑफ और तलछटीकरण का अनुमान लगाने के लिए भी इस्तेमाल में लाया जा रहा है।
- संभाग ने प्रक्रिया की क्षमता तथा प्रयोगशाला/खेत और वायु/अन्तरिक्ष वाहित तकनीक के हाइपर-स्पैक्ट्रल आंकड़ों के अन्वेषण के लिए एक प्रणाली विकसित की है जिससे आंकड़ा भंडारण के लिए कम स्थान की आवश्यकता पड़ती है और इकहरा चैनल वाला रेडियोमापी सृजित किया है जिससे आउट-पुट इमेज में वृद्धि होती है। इस तकनीक में विनियमन कार्यक्रमों में अनेक परिवर्तन को पहचानने की अत्यधिक अनुप्रयोग क्षमता है क्योंकि इससे श्रेष्ठ भूमि उपयोग तथा मृदा और अपघटित क्षेत्र से संबंधित ठीक-ठीक सूचना उपलब्ध होती है। इसके अलावा इसके द्वारा शरद् ऋतु की फसलों में विभेदन, बड़े क्षेत्र में खेत में मृदा नमी अंश का आकलन, मृदा उत्पादकता के घटक का मात्रात्मक निर्धारण और बड़ी जल कायाओं में निलम्बित तलछट की सांद्रता का भी अनुमान लगाया जा सकता है।
- ऊर्जा के पुनर्नव्य स्रोत ऊर्जा आपूर्ति को बढ़ाने तथा जीवाश्म ईंधन के उपयोग से जुड़ी स्थानीय व वैश्विक पर्यावरणीय समस्याओं से निपटने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पेट्रोल में 5 और 10 प्रतिशत की दर से मिलाने के लिए इथेनॉल के उत्पादन हेतु विभिन्न उपलब्ध कृषि संसाधनों की सूची तैयार की गई है। गैसोहॉल के लिए वर्ष 2003-04 व 2011 के बीच 10 प्रतिशत इथेनॉल मिलाने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए इथेनॉल की आवश्यकता हेतु वांछित जीव द्रव्य की गणना की गई जिसके लिए जीव द्रव्य के विभिन्न स्रोतों के प्रति टन से कितना इथेनॉल तैयार किया जा सकता है, इसका आकलन किया गया। परिणामों से पता चला कि 3.0 मिलियन टन क्षतिग्रस्त (या अच्छी गुणवत्ता वाला) अनाज अथवा लगभग 5.0 मिलियन टन भूसे से पूरे देश की गैसोहॉल के लिए इथेनॉल संबंधी वर्तमान आवश्यकता पूरी हो सकती है। अनाज और भूसे के ये मान 2010-11 तक क्रमश: 7 और 11 मिलियन टन बढ़ जाएंगे।
- यह संभाग भारतीय स्थितियों में भुट्टे के मंड, ज्वार के रस तथा जीव द्रव्य से जैव-इथेनॉल के उत्पादन की प्रौद्योगिकी विकसित करने की दिशा में भी कार्य कर रहा है। मक्का की प्रभात किस्म को इथेनॉल उत्पादन की क्षमता के लिए उपयोग में लाया गया और इसमें यीस्ट के दो अलग-अलग प्रभेद (सैक्रोमाइसिस सेरीविसिई तथा जाइलोमोनास मोबेलिस) उपयोग में लाए गए। सैक्रोमाइसिस सेरीविसिई आईटीसीसी 1030 यीस्ट प्रभेद से सर्वाधिक इथेनॉल प्राप्त हुआ।
- ज्वार की किस्में पीसी 601, पीसीएच 109 तथा सीएसएच-20 एमएफ में इथेनॉल के किण्वन के लिए किण्वनशील शर्करा में जैव रासायनविज्ञानी परिवर्तन हेतु फीड स्टॉक की क्षमता पाई गई। सैक्रोमाइसिस सेरीविसिई के प्रभेद एनसीआईएम 3186 से सर्वोच्च इथेनॉल उत्पादन हुआ। 100 ग्राम ज्वार जीव द्रव्य से इथेनॉल किण्वन के लिए 25.2 से 28.2 प्रतिशत कुल किण्वनशील शर्करा प्राप्त हुई।
- विभिन्न डिस्काउंट दरों पर विभिन्न कृषि वानिकी तथा जैव ईंधन पौध प्रजातियों के लाभ : लागत अनुपात का अनुमान लगाया गया। आंवला जो एक शुष्क भूमि वाली फलदार फसल है, शुष्क भूमि की स्थितियों के अन्तर्गत जेट्रोफा तथा पोंगामियां की तुलना में बेहतर विकल्प पाया गया। हमारे अध्ययनों से यह पता चला है कि सिंचित स्थितियों में भी किसानों की भूमि पर जेट्रोफा की खेती अपेक्षाकृत कम लाभदायक सिद्ध होगी।
- फसल अपशिष्टों, फल व सब्जियों के बचे व्यर्थ पदार्थों व जलीय खरपतवारों जैसे विभिन्न कृषि अपशिष्टों से बायोगैस उत्पादन को सर्वोच्च करने के लिए प्रक्रिया संबंधी स्थितियों की पहचान करके उन्हें इष्टतम बनाया गया। कृषि अपशिष्टों तथा रसोईघर से मिलने वाले व्यर्थ पदार्थों से ऊर्जा और खाद के उत्पादन के लिए शुष्क किण्वन प्रौद्योगिकी (ठोस अवस्था किण्वन) विकसित की गई। परम्परागत बायोगैस संयंत्र के विपरीत इस प्रौद्योगिकी में वैकल्पिक तथा पूरक फीड स्टॉक के रूप में हर प्रकार के रेशेदार कार्बनिक अपशिष्ट पदार्थों का उपयोग किया जा सकता है और इन्हें बायोगैस उत्पादन के लिए गाय के गोबर में पिलाया जा सकता है। बायोगैस के खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग की डिजाइन में सुधार किया गया ताकि बायोगैस संयंत्र और अधिक उपयोकर्ता मित्र हो तथा इसके उन्नत गुणों पर पेटेन्ट के लिए आवेदन दिया गया है।
- आईपीसीसी की डिफॉल्ट मेथेडोलॉजी तथा प्रत्यक्ष गैस आकलन का उपयोग करते हुए दिल्ली के भालस्वा कूड़ा भराव से मीथेन उत्सर्जन का मात्रात्मक आकलन किया गया तथा इसमें फ्लक्स चैम्बर विधि का उपयोग किया गया। एमएसडब्ल्यू के कूड़ा भराव क्षेत्र की बायोगैस उत्पादन क्षमता का मात्रात्मक निर्धारण किया गया।
पर्यावरण सुरक्षा पर मानव संसाधन विकास : यह संभाग स्नातकोत्तर विद्यालय के क्रियाकलापों के माध्यम से औपचारिक तथा अनौपचारिक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों के द्वारा पर्यावरण निगरानी तथा प्रभाव मूल्यांकन, फसल मॉडलिंग और जलवायु परिवर्तन पर प्रशिक्षित जन शक्ति की उपलब्धता सुनिश्चित करता है।