भा.कृ.अ.सं. क्षेत्रीय केन्द्र, कलिम्पोंग डॉ. बर्मन द्विजेन्द्र
अध्यक्ष
फोन : 03552-255446
ई-मेल : head_kalim[at]iari[dot]res[dot]in

 

समुद्र तल से 1200 मीटर की औसत ऊंचाई पर स्थित भा.कृ.अ.सं. क्षेत्रीय केन्द्र, कलिम्पोंग इस संस्थान के प्रमुख केन्द्रों में से एक है। इसकी स्थापना एल.बी.रोड, कलिम्पोंग में 'चर्चिल विले' नामक एक किराए की इमारत में फरवरी 1956 में समन्वित पादप विषाणु अनुसंधान स्कीम, भा.कृ.अ.सं., पूर्वी क्षेत्र कलिम्पोंग के रूप में हुई थी। वर्ष 1967 में इसे पादप विषाणु अनुसंधान उप-केन्द्र का नाम दिया गया और अंत में 1969 में इसका नाम पादप विषाणु अनुसंधान केन्द्र रखा गया। दिनांक 11.10.1972 को 81/2 माइल्स, लोवर रेशी रोड, कलिम्पोंग में 3.145 एकड़ क्षेत्र के 'एल्पाइन एस्टेट' को पादप विषाणु अनुसंधान केन्द्र के लिए अधिगृहीत किया गया। अधिगृहीत की गई संप‍त्ति पर 12.2.1973 को कब्जा करने का कार्य आरंभ हुआ और यह 23.11.1974 को पूर्ण हुआ। अंतत: पादप विषाणु अनुसंधान केन्द्र 'चर्चिल विले' से इस स्थान पर फरवरी 1973 को हस्तांतरित हुआ और यहां 1976 में इसे भा.कृ.अ.सं. क्षेत्रीय केन्द्र, कलिम्पोंग का नाम दिया गया। जन-सामान्य में यह केन्द्र प्लांट वायरस ऑफिस या प्लांट वायरस या वायरस ऑफिस या केवल वायरस के नाम से लोकप्रिय है।

प्रो. एस.पी.चौधरी, जिन्हें भारत में पादप विषाणु विज्ञान का जनक माना जाता है, इस क्षेत्रीय केन्द्र के संस्थापक प्रभारी अधिकारी थे। उन्होंने इस केन्द्र में 1956 से 1961 तक पादप विषाणुओं के अपने अनुसंधान कार्य से केन्द्र पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। बाद में भी इस केन्द्र का प्रभार पादप विषाणु विज्ञान और कीटविज्ञान के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने संभाला जिनमें प्रो. एस.एन.चटर्जी (1961-62), प्रो. बी.गांगुली (1962-67), प्रो. ए.एन.बसु 1967-69), प्रो. डी.सी.शर्मा (1969-72), प्रो. वाई.एस.अहलावत (1972-80) और प्रो. एन.के.चक्रवर्ती (1980-88)के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

भा.कृ.अ.सं. क्षेत्रीय केन्द्र कलिम्पोंग ने दार्जिलिंग और सिक्किम की पहाड़ियों में आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण पादप प्रजातियों को प्रभावित करने वाले विषाणु तथा विषाणु जैसे रोगों पर अनुसंधान करने में अग्रणी भूमिका अदा की है। अपनी स्थापना काल अर्थात् 1956 से इस क्षेत्र में मौजूद कम से कम 25 विषाणु और विषाणु जैसे रोग इस केन्द्र से रिपोर्ट किए गए। वास्तव में, 80 के मध्य के दशक से लेकर 90 के दशक के मध्य तक यहां अनुसंधान के क्षेत्र में अपेक्षाकृत निष्क्रियता की स्थिति रही क्योंकि क्षेत्रीय केन्द्र की प्रमुख स्थापना (कार्यालय व प्रयोगशाला की इमारत, पुस्तकालय और संग्रहालय) 15 दिसम्बर 1987 को आग में जलकर खाक हो गए। इस प्रकार, लगभग एक दशक तक इस केन्द्र का अनुसंधान कार्य लगभग पंगु रहा। कार्यालय व प्रयोगशाला की नई इमारत के निर्माण के पश्चात अब अनुसंधान कार्य ने तेजी पकड़ी है।

 

अधिदेश:

  • नींबूवर्गीय फलों, इलायची और ऑर्किडों के विषाणु रोगों की पहचान और विषाणु मुक्त पौधों का उत्पादन
  • उत्तर पूर्वी पहाड़ियों में विषाण्विक रोगों को रोकने के लिए प्रबंधन विधियों का विकास

 

उद्देश्य :

  • पूर्वी और उत्तर-पूर्वी भारत के प्रमुख फसलों और उनके रोग की पहचान और लक्षण वर्णन ।
  • इस क्षेत्र की प्रमुख फसलों के प्रबंधन के तरीकों का विकास।
  • प्रौद्योगिकी विकास और पूर्वी और उत्तर-पूर्वी भारत में प्रमुख फसलों के हस्तांतरण।
  • अग्रिम कृषि प्रौद्योगिकियों और प्रथाओं पर क्षमता निर्माण कार्यक्रम का आयोजन