Division of Entomology डॉ. देबजानी डे
अध्यक्ष
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कीट विज्ञान संभाग 1905 में स्थापित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्‍थान के पहले पांच संभागों में से एक संभाग है। इस संभाग ने कीट वर्गीकरण विज्ञान, आर्थिक कीटविज्ञान एवं प्रमुख कीटों व नाशकजीवों के अध्ययन में महारत हासिल की है। राष्ट्रीय पूसा संकलन (एनपीसी) जिसमें लगभग 5 लाख किस्म के कीट मोजूद हैं, इसे कीटों व नाशकजीवों के राष्ट्रीय संग्रहालय के रूप में देखा जाता हैं। यह संभाग कीट वर्गीकरण विज्ञान में महारत के साथ –साथ कृषि कीट विज्ञानी में अग्रणी मूल एवं व्यवहारिक अनुसंधान  कर इस देश को पिछले कई दशक से कीट पर्बंधन के प्रभावी तरीके उपलब्ध कराता रहा है।

कीट विज्ञान संभाग की स्थापना पूसा, बिहार में स्थित तत्कालीन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट के पांच प्रमुख संभागों के रूप में 1905 में हुई थी जो की वर्ष 1936 में यह अपने वर्तमान परिसर में लाया गया। प्रतिष्ठित कीट विज्ञानियों जैसे एच. एम. लैफ्रॉय, टी. बी.फ्लैचर, एच. एस. प्रूथी, एस. प्रधान और डॉ. के. एन. मेहरोत्रा ने कीटविज्ञान में मूल एवं व्यावहारिक अनुसंधान की सशक्त नींव रखी। चूंकि कीट एवं नाशकजीव फसलोत्पादन में प्रमुख बाधा थे, अत: आरंभिक अन्वेषण मुख्य रूप से कीट वर्गीकरण विज्ञान, जीवविज्ञान एवं बायोनोमिक्स पर केन्द्रित किए गए। उत्कृष्ट योगदानों के परिणामस्वरूप विपुल मात्रा में संदर्भ साहित्य प्रकाशित हुआ, नामत: 2006 में लेफ्रॉय द्वारा लिखित इंडियन इन्सेक्ट लाइफ तथा प्रूथी द्वारा लिखित टैक्स्ट बुक ऑफ एग्रीकल्चरल एंटोमोलॉजी वृहत सर्वेक्षणों के परिणामस्वरूप राष्ट्रीय पूसा संकलन (एनपीसी) की स्थापना हुई जो विश्व में अपनी किस्म का सबसे बड़ा संकलन हैं। अब इस कीट संकलन में पांच लाख से अधिक प्रतिदर्श सम्मिलित हैं जिनमें से 1 लाख को वास्तविक रूप से पहचाना जा चुका है और यह लगभग 20 हजार प्रजातियों के हैं। पिछले लगभग 50 वर्षों में कीटों की 1500 से अधिक नई प्रजातियों का वर्णन एनपीसी से उपलब्ध कराया गया है। नाशक जीव नैदानिकी के लिए राष्ट्रीय सेवा के रूप में इस संभाग के वर्गीकरण विज्ञानियों द्वारा प्रतिवर्ष लगभग 4000 प्रतिदर्शों की पहचान की जाती है। लैपिडोप्टेरा, कोलियोप्टेरा, हेमिप्टेरा, ऑर्थोप्टेरा और हाइमेनोप्टेरा जैसे गणों तथा एकेरीना वर्ग के कृषि की दृष्टि से महत्वपूर्ण कीटों के अनेक वर्गीकरण विज्ञानी गुणों का विवरण इस संभाग में तैयार किया गया है। वर्तमान में विभिन्न फसल नाशकजीवों के लिए सीडी-रोम आधारित नैदानिक युक्तियां विकसित की जा रही हैं।

पिछले शताब्दी के 60 के दशक के आरंभ में तथा 70 के दशक में डॉ. प्रधान द्वारा आर्थिक कीटविज्ञान एवं कीटनाशी विषविज्ञान पर महत्वपूर्ण अध्ययन किए गए जिनके परिणामस्वरूप पर्यावरण में कीटनाशियों के भविष्य तथा कीटनाशियों के क्रिया की विधि को समझने में और अधिक मौलिक अनुसंधान हुए। नीम के कीटनाशक गुणों की पहचान से संबंधित डॉ प्रधान के योगदान से समेकित कीट प्रबंधन की संकल्पना का विकास हुआ, टिड्डियों के आक्रमण की अवधि का पता चला, डीडीटी की कार्यविधि का ज्ञान हुआ तथा अनाज भंडारण की संरचना 'पूसा बिन' का विकास हुआ, जिससे भंडारित अनाज में कीटों व नाशकजीवों से होने वाले नुकसान को कम करना संभव हुआ और इससे हमारे देश में कीटविज्ञानी अनुसंधान का मार्ग प्रशस्त हुआ। प्रमुख कीटों व नाशकजीवों के जीवविज्ञान एवं बायोनोमिक्स से पर्यावरण मित्र नाशकजीवनाशी प्रबंध की तकनीकों को अपनाने की नींव पड़ी। प्रमुख कीटों नाशकजीवों नामत: ज्वार के तना बेधक, ज्वार की प्ररोह मक्खी, अमेरिकी बॉलवर्म, गुलाबी बॉलवर्म, सरसों के माहू, कपास की सफेद मक्खी और सफेद गिडारों के संदर्भ में पोषक – पादप प्रतिरोध एवं इससे संबंधित जीवविज्ञान पर अनुसंधान कार्य की नींव पड़ी।

ई. एस. नारायणन और बी. आर. सुब्बाराव ने जैविक नियंत्रण की इकाई की स्थापना की। कीटविज्ञान संभाग ने 70 के दशक में गन्ने के बेधक के नियंत्रण के लिए बार्बेडॉस को एक परजीवी नामत: एपेन्टेलेस फ्लेविपेस का निर्यात किया। वर्तमान में, दो दर्जन से अधिक परजीव्याभों और परभक्षियों को गहन अन्वेषणों के लिए पाला जा रहा है। नब्बे के दशक के मध्य में मिलीबग के नियंत्रण के लिए क्रिप्टोलेइमस मोंट्रोउजिएरी तथा सिम्नस कोकिवोरा नामक परभक्षियों का कैरेबियन देशों को निर्यात किया। मुख्य प्रयास हमारी जलवायु स्थिति के अनुसार ढालने के मकसद से ट्राइकोग्रामा के ताप के प्रति सहिष्णु प्रभेदों के विकास की दिशा में किया जा रहा है। परजीव्याभों की परजीवी क्षमता बढ़ाने के उद्देश्य से कीट-पादप-परजीव्याभों का पारस्परिक क्रिया का अध्ययन करना इस संभाग के आधुनिक प्रमुख अनुसंधान कार्यों में से एक है। एजाडिरेक्टिन की क्रियाविधि का वर्णन करने के अतिरिक्त कीट वृद्धि विनियमन संबंधी गुणों की पहचान के लिए अनेक देशी वनस्पतियों पर अन्वेषण किए गए हैं।

कीट विष विज्ञान के अंतर्गत प्रमुख कीटों व नाशकजीवों के लिए कीटनाशियों की सापेक्ष आविषालुता संबंधी अध्ययनों के साथ-साथ उनके फार्मुलेशनों का विकास भी किया गया।  इसके अलावा कीटनाशियों की नासकजीव क्षमता, अवशेष सीमा एवं उनके प्रयोग के बाद खाने योग्य सुरक्षित समय के आकलन पर भी अध्ययन किये गए। इस संभाग ने ही सर्वप्रथम सिंघाड़ा भृंग गेलेरूसेला बिर्मानिका में कीटनाशक प्रतिरोध के बारे में रिपोर्ट किया था तथा हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा में कीटनाशी प्रतिरोध की निगरानी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रमुख कीटों व नाशकजीवों में कीटनाशियों के प्रति आविषालुता एवं उनका प्रभावी नियंत्रण पर गहन अध्ययन किया जा चूका हैं। कीटनाशियों के प्रति आविषालुता के जैव रसायन विज्ञानी आधार पर भी गहन शोध किये गए। पैअरिथ्रोइड रोधी हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा प्रजाति के अध्ययन द्वारा यह पता लगाया गया की कार्बोक्सिलइस्टरेज पैअरिथ्रोइड आविषालुता में विशेष भूमिका निभाते हैं। कीटनाशी में कीटनाशी शक्ति की चयनशीलता में कई एसीटाइल कोलीन इस्टरेज की उपलब्धता एवं उनकी विभिन्न प्रतिरोध क्षमता का विशेष योगदान होता है। बसिल्लुस थुरिंजिएंसिस आविषों के प्रति डायमंड बैकमॉथ तथा अमेरिकन बॉलवर्म की आधार रेखा संवेदनशीलता पर किए गए गहन अन्वेषणों द्वारा फसल कीटों में बी. टी. प्रतिरोध आनुवंशिकी का पता लगाया गया। विभेदनशील कई एसीटाइल कोलीन इस्टरेज निरोधन के संदर्भ में उसका जैव रसायनविज्ञानी आधार उपलब्ध कराया तथा कीटनाशी चयनशीलता और प्रतिरोध के लिए कार्बोक्सिलइस्टरेज सक्रियता का वर्णन किया।

एन.रामाकृष्णन द्वारा 1969 में तंबाकू की इल्ली के न्यूक्लियोपॉलीहाइड्रोवायरस (एनपीवी) की खोज ने कीट नियंत्रण के लिए उपयोगी अन्य सूक्ष्मजैविक रोगजनक विषाणुओं, जीवाणुओं व फफूंदियों पर भी अध्ययन का मार्ग प्रशस्त किया। एन.रामाकृष्णन के 80 के दशक में कीटों व नाशकजीवों से सम्बंधित बैकुलोवैरुसेस के जीन प्रतिचित्रण में किये गए अग्रगामी प्रयत्न ने इस संभाग में कीट आण्विक जीवविज्ञान में होने वाली शोध की आधारशिला रखी। इजीटी जीन अपमार्जन द्वारा बैकुलोवैरुसेस की जनन-विज्ञान अभियांट्रिकी, कीटों व नाशकजीवों के 20 हिड्रोक्सी एक्दैसोंस का चरित्र चित्रण, बी. टी. प्रतिरोध की आधार रेखा संवेदनशीलता, फसल कीटों व नाशकजीवों में ज़ेनोबायोटिक प्रतिरोध का आण्विक आधार, बॉलवर्म नाशकजीवों में बी. टी. प्रतिरोध जींस का उल्लेख करना तथा कीटों की बारकोडिंग जैसी उपलब्धियां इस संभाग की हाल में हुई महत्तवपूर्ण उपलब्धिओं में से कुछ एक हैं। हाल में, इस संभाग ने अनेक कीटों व नाशकजीवों के विश्लेषि अध्ययन एवं उनके अनूठी प्रकार के कृत्रिम पालन आहार विकशित करने तथा कीटों व नाशकजीवों की विकाशशील अकेले चल सकने योग्य कीट पालन तकनीकियाँ विकशित करने के उदेश्य से राष्ट्रीय कीट पालन सुविधा स्थापित की है।

संभाग के अधिदेश हैं:

  • कीटविज्ञान में मौलिक और कार्यनीतिपरक अनुसंधान करना
  • अनुसंधान, स्नातकोत्तर शिक्षा और मानव संसाधन विकास के क्षेत्र में शैक्षणिक उत्कृष्टता के लिए केन्द्र के रूप में विकसित होना
  • कीटविज्ञान एवं प्रौद्योगिकियों में सेवाएं उलपब्ध कराना