प्रमुख क्षेत्र
- कृषि-सूचना विज्ञान का विकास
- कृषि में सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी का अनुप्रयोग
मृदा कार्बनिक कार्बन गतिकी की मॉडलिंग और मृदा से ग्रीन हाउस गैस का निकलना
मृदा से ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन व मृदा कार्बन गतिकी के आकलन के लिए 'इन्फोक्रॉप' मॉडल को अद्यतन किया गया है। इस मॉडल में मृदा कार्बनिक पदार्थ को दो प्रमुख पूलों में बांटा जाता है अर्थात् ताजा कार्बनिक पदार्थ (एफओएम) और ह्यूमिडीकृत कार्बनिक पदार्थ (एचओएम)। एचओएम मूलत: देसी मृदा में मौजूद कार्बनिक पदार्थ है। किसी भी कार्बनिक पदार्थ जैसे हरी खाद, घूरे की खाद या फसल अपशिष्ट को बाहर से मिलाने पर एफओएम पूल की वृद्धि होती है। इस एफओएम पूल को बाद में तीन उप-पूलों में विभाजित किया जाता है, नामत: कार्बोहाइड्रेट, सेलूलोज़ व हैमीसेलूलोज़ तथा लिगनिन जिनकी अपघटन दर क्रमश: 0.8, 0.05 और 0.0095 प्रतिदिन होती है। अपघटन की इस दर को नमी, तापमान तथा pH के लिए संशोधित किया जाता है। मृदा कार्बनिक कार्बन पूल के अपघटन की गणना प्रथम क्रम की प्रतिक्रियाओं के अनुसार विभिन्न परतों के लिए की जाती है जो उगने वाली फसलों से एक साथ निर्मोचित होती हैं और मृत्त जड़ ऊतकों में सबस्ट्रेट के रूप में उपलब्ध रहती हैं। मीथेन के उत्पादन की गणना इस सबस्ट्रेट के कार्य के रूप में की जाती है, जिसके लिए मृदा रेडॉक्स क्षमता के प्रभाव के लिए घटक के लेखाकरण को सुधारा जाता है। मीथेन के उत्सर्जन के बाद छोड़ी गई घुली हुई ऑक्सीकरण योग्य कार्बन की मात्रा ही उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड होती है। खेत प्रयोगों के आंकड़ों का उपयोग करके इस मॉडल का परिशोधन व सत्यापन किया जा रहा है।
इन्फोसॉयल : मृदा गुणवत्ता मूल्यांकन तथा उर्वरक संबंधी सिफारिशों के लिए एक निर्णय सहायी प्रणाली
सामान्य रूप से उपलब्ध मृदा प्राचलों का उपयोग करते हुए मृदा की गुणवत्ता के मूल्यांकन तथा उर्वरक की वांछित मात्रा की गणना के लिए एक कम्प्यूटर आधारित निर्णय सहायी प्रणाली, इन्फोसॉयल, विकसित की गई है। इसमें शामिल हैं 1) प्रमुख मृदा गुणों की पहचान, 2) इन गुणों के थ्रेशहोल्ड मान की स्थापना, 3) दर प्रणाली का विकास और 4) मृदा के गुणों जैसे मृदा गुणवत्ता सूचकांक की सकल माप के विकास के लिए प्रमुख मृदा गुणों का समेकन। ऐसे सूचकांक का उपयोग निम्न के लिए किया जा सकता है : 1) मृदा गुणवत्ता का मात्रात्मक मूल्यांकन करना, 2) फसल प्रणालियों के प्रभावों की निगरानी व उनका पूर्वानुमान तथा मृदा गुणवत्ता पर प्रबंधन संबंधी विधियां और 3) मृदा गुणवत्ता में रास के आरंभिक संकेत उपलब्ध कराना। इन्फोसॉयल में चावल, गेहूं और मक्का की नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश उर्वरक की आवश्यकता की गणना के लिए QUEFTS (क्वांटिटेटिव इवेल्यूवेशन ऑफ फर्टिलिटी ऑफ ट्रॉपिकल सॉयल्स) मॉडल का उपयोग किया जाता है (जेनसेन और साथी, 1990; विट और साथी, 1999; पाठक और साथी, 2003)। इसके अतिरिक्त इन्फोसॉयल से कुछ महत्वपूर्ण भौतिक (जल अंश और फील्ड क्षमता, मुर्झान बिन्दु तथा संतृप्तता; मृदा ईसी, जलदाब चालकता, वाष्पीकरण द्वारा नाइट्रोजन की क्षति, विपुल घनत्व, वाष्पन-उत्स्वेदन) रासायनिक (मृदा में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की आपूर्ति; विनिमयशील पोटाश अंश, एसएआर, ईएसपी) तथा जीवविज्ञानी (सूक्ष्मजैविक जीवद्रव्य कार्बन तथा नाइट्रोजन) गुणों की गणना पीडोट्रांसफर कार्यों का उपयोग करके की जाती है। यह निर्णय सहायी प्रणाली उन सभी के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है जो मृदा उर्वरता अनुसंधान में रत हैं, विशेषकर मृदा परीक्षण प्रयोगशालाओं में कार्य कर रहे हैं, क्योंकि इससे उर्वरक उपयोग संबंधी अनुशंसाएं सटीक ढंग से की जा सकेंगी और मृदा की गुणवत्ता का बेहतर आकलन हो सकेगा।
नाशकजीव जनसंख्या गतिकी
चावल के गंधीबग, लेप्टोकोरिसा एक्यूटा के लिए एक जेनरिक नाशकजीव गतिकी अनुरूपण मॉडल तैयार किया गया है। यह नाशकजीव के विभिन्न जीवनचक्र अवस्थाओं में वांछित तापीय समय की संकल्पना पर आधारित है। जीवनचक्र की विभिन्न अवस्थाओं के लिए विकास के थ्रेशहोल्ड का पता लगाया गया है। अंड अवस्था, पंखहीन पैडयुक्त शिशु अवस्था, पंखयुक्त पैड अवस्था वाले शिशुओं तथा वयस्कों के लिए विकास का थ्रेशहोल्ड क्रमश: 13.6, 13.8, 9.3 और 8.5 डिग्री सैल्सियस पाया गया। अंडों, पंखहीन पैडयुक्त शिशुओं, पंखयुक्त पैड वाले शिशुओं तथा वयस्कों के लिए तापीय समय क्रमश: 79.5, 140.9, 224.1 और 1320 डीडी पाया गया। इस मॉडल का परिशोधन व सत्यापन किया जा रहा है।
इस मॉडल का उपयोग प्रतिदिन 30 डिग्री सैल्सियस के औसत तापमान में (2001 के मौसम के दौरान) 0.5, 1 तथा 2 डिग्री सैल्सियस की वृद्धि करके इस मत्कुण (बग) की जनसंख्या पर तापमान के संभावित प्रभाव का अनुरूपण करने के लिए किया गया। यह पाया गया कि तापमान में 2 डिग्री सैल्सियस तक की वृद्धि से मत्कुण की जनसंख्या में वृद्धि होती है जबकि तापमान में इससे अधिक वृद्धि होने पर इसकी जनसंख्या पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
संस्थान के फार्म पर खरीफ 2003 के दौरान चावल की किस्म पूसा सुगंध-3 के साथ एक प्रयोग किया गया ताकि चावल में पत्तीमोड़क कीट से होने वाली क्षति की यांत्रिकी का मात्रात्मक निर्धारण किया जा सके। इस प्रयोग में तीन प्रतिकृतियों में दस उपचार किये गए। विभिन्न उपचारों में मौसम के दौरान पत्ती मोड़क कीट का प्रकोप 2.4 से 20.26 प्रतिशत के बीच भिन्न-भिन्न रहा और इस नाशकजीव का सबसे अधिक प्रकोप रोपाई के 55 दिन बाद रिकॉर्ड किया गया। विभिन्न उपचारों में कुल शुष्क पदार्थ और उपज क्रमश: 10.2.66-20450 कि.ग्रा./है. और 4008-4750 कि.ग्रा./है. है। इन आंकड़ों का उपयोग इन्फोक्रॉप मॉडल के साथ पत्ती मोड़क कीट से होने वाली क्षति के आकलन के लिए किया जाएगा।
इन्फोक्रॉप का उपयोग कोलोरेडों (संयुक्त राज्य अमेरिका) की स्थितियों के अन्तर्गत शरदकालीन गेहूं पर गेहूं के रूसी माहू या एफिड तथा डाउनी ब्रोम खरपतवार के प्रभाव के अनुरूपण के लिए किया गया। इस मॉडल से शरदकालीन गेहूं को दोनों नाशकजीवों द्वारा पहुंचाई गई क्षति का सटीक अनुरूपण किया गया। इस सत्यापित मॉडल का उपयोग माहुओं द्वारा क्षति के आर्थिक स्तरों का पता लगाने के लिए किया गया। फसल की वानस्पतिक बढ़वार प्रावस्था के दौरान क्षति का आर्थिक स्तर प्रति दोजी 10 माहू पाया गया।दिल्ली में चावल के तना वेधक तथा भूरे फुदके पर तापमान के बढ़ने के संभावित प्रभाव का मूल्यांकन नाशकजीव के लिए अनुकूल तापमान के परास (रेंज) के संदर्भ में वर्तमान परिवेषी तापमानों तथा बढ़े हुए परिवेषी तापमानों का विश्लेषण करके किया गया। तना वेधक के लिए तापमान का अनुकूल परास 15.1-38 डिग्री सैल्सियस, जुलाई से अक्तूबर के महीनों के दौरान था। न्यूनतम और उच्चतम, दोनों ही तापमान नाशकजीव के लिए अनुकूल परास के अन्तर्गत ही थे। अत: तापमान में एक या दो डिग्री सैल्सियस की वृद्धि से नाशकजीव के विकास की दर में वृद्धि होगी और इसे अनेक पीढि़यों के बाद अनुभव किया जा सकेगा।
बीपीएच के लिए तापमान का अनुकूल परास 15-36 डिग्री सैल्सियस के बीच है। पूर्व के पांच वर्षों में जुलाई-अक्तूबर के दौरान नाशकजीव के लिए न्यूनतम और उच्चतम, दोनों तापमान अनुकूल रहे। न्यूनतम तापमान में वृद्धि नाशकजीव के लिए अधिक अनुकूल सिद्ध होगी जबकि उच्चतम तापमान अनुकूल परास को पार कर सकता है। तापमान में एक या दो डिग्री सैल्सियस की वृद्धि का, हो सकता है कोई प्रभाव न पड़े क्योंकि न्यूनतम तापमान के बढ़ने से होने वाला लाभदायक प्रभाव अधिकतम तापमान के बढ़ने से पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव के कारण शून्य हो सकता है।
वर्ष 1985-86 से 1999-2000 के दौरान जौ की किस्म डीएल-70 में माहू के प्रकोप का विश्लेषण जलवायु की विविधता के संदर्भ में किया गया। यह ध्यान देने योग्य है कि फसल पर माहू के प्रकोप में अन्तर-वार्षिक विविधता बनी रहे। समय के साथ जौ की फसल पर माहुओं की जनसंख्या में घटाव की प्रवृत्ति देखी गई। जनवरी में औसत न्यूनतम तापमान तथा फरवरी में कुल वर्षा के संदर्भ में माहू की जनसंख्या का नकारात्मक संबंध दिखाई दिया। यह पूर्वानुमान लगाया जा रहा है कि न्यूनतम और उच्चतम तापमान, दोनों में वृद्धि तथा फरवरी में होने वाली कुल वर्षा का माहू की जनसंख्या पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा तथा उसमें वृद्धि होगी। लेकिन वर्षा के बार-बार होने से इसकी सघनता में वृद्धि हो सकती है। इस प्रकार भविष्य में न्यूनतम तापमान में वृद्धि तथा वर्षा के पैटर्न में परिवर्तन जौ की फसल में माहुओं के प्रकोप को प्रभावित कर सकता है।
जैव सूचना विज्ञान
केन्द्र ने जैव सूचना विज्ञान, कृषि-सूचना विज्ञान तथा जैव-कम्प्यूटिंग पर चार स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम प्रस्तावित किये हैं जो संस्थान के एम.एससी. व पीएच.डी. छात्रों की लघु विषयों से संबंधित आवश्यकता को पूरा करेंगे। जीनोम क्रम विश्लेषण, मार्कर सहायी चयन, फसलों के लिए संतति विश्लेषण, प्रोटीन विश्लेषण और जीन अनुरूपण के लिए विभिन्न जैव सूचना विज्ञानी युक्तियों के उपयोग पर कार्य आरंभ कर लिया गया है।
सॉफ्टवेयर का विकास
केन्द्र में मृदा सूचना प्रणाली पर निम्नलिखित सॉफ्टवेयर विकसित किया गया है :
मृदा सूचना प्रणाली
- गेहूं में संतति सूचना विज्ञान तथा आकृतिविज्ञानी विविधता
- समेकित नाशकजीव प्रबंध सूचना प्रणाली
- प्रमुख फसलों के लिए पादप सुरक्षा सूचना प्रणाली
संस्थान की वेबसाइट
भा.कृ.अ.सं. वेबसाइट को तैयार करके इसका उन्नयन किया जा रहा है तथा संस्थान के वैज्ञानिकों व छात्रों को इन्टरनेट सेवाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं।
UGWSTATUS : दिल्ली के जल संसाधनों पर शहरीकरण के प्रभाव को समझने के लिए एक सॉफ्टवेयर
इस पहलू पर अनुसंधान कार्य प्रगति पर है।
भा.कृ.अ.सं. की प्रौद्योगिकियों, उत्पादों और सेवाओं को देश के विभिन्न भागों में आयोजित विभिन्न महत्वपूर्ण अन्तरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय, क्षेत्रीय, संस्थागत कृषि प्रदर्शनियों में भाग लेकर प्रदर्शित व प्रवर्धित किया जाता है।