सूत्रकृमि विज्ञान विभाग

डॉ. उमा राव
अध्यक्ष एवं प्रधान वैज्ञानिक
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फैक्स :  011-25846626
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सूत्रकृमि विज्ञान संभाग, सूत्रकृमि नामक जीव पर कार्य कर रहा है जिसे सामान्यतः गोलकृमि, ईलकृमि या धागेनुमा कृमि कहते हैं। ये विभिन्न स्थानों व पोषी समूहों में पाये जाने वाले बहुसंख्य व बहुकोशीय जीव हैं। पादप परजीवी सूत्रकृमि प्रत्यक्ष व अन्य रोगजनक जीवाणुओं, कवकों व विषणुओं के उत्तेजकों की तरह कार्य करके फसलों को अप्रत्यक्ष रूप से हानि पहॅंचाते हैं। इन्हें खेती व बागवानी फसलों का महत्वपूर्ण पीड़क माना जाता है। इनमें से जड़गाँठ मैलेडोगाइन स्पी., पुट्टी बनाने वाले हैटेरोडेरा स्पी, गुर्दाकार रोटाइलैंकुलस रेनिफोरमिस व घाव देने वाले प्राटाईलैंकस स्पी., व भेदक सूत्रकृमि आदि आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। पंजाब, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान व हरियाणा में गेहूँ व जौ में मोल्यां, ईयर कोकल व सेहू रोग, सूत्रकृमियों द्वारा उत्पन्न प्रमुख बीमारियां हैं। देश के नीबू उत्पादन वाले क्षेत्रों में टाइलैंकुलस सेमीपैनीट्रैंस द्वारा स्लो डेक्लाइन, व दक्षिण भारतीय क्षेत्रों में रैडोफोलस सिमिलिस द्वारा केले का स्पै्रडिंग डिक्लाइन भी सूत्रकृमि जनित रोग है। हाल ही में उथले व नमी वाली भूमि में उगाये जाने वाले धान की फसल में जड़ गाँठ सूत्रकृमि मैलेडोगाइन ग्रेमिनीकोला का रोग देश के चावल उत्पादक क्षेत्र के लिए एक गंभीर समस्या के रूप में उभरा है। सूत्रकृमि, ऑंखों से न दिखायी देने की वजह से कृषक समुदाय इन रोगों से अनभिज्ञ रहते हैं। ज्ञान व जानकारी के अभाव के कारण सूत्रकृमि समस्या साल दर साल बढ़ती जा रही है। आज के दोर में बहुफसलीय व गहन ख्रेती अपनाने के कारण सूत्रकृमियों की समस्या बढ़ती जा रही है। सूत्रकृमि फसलों के हानि पहुंचा रहे है तथा विश्व भर में उत्पादन कम करने के लिए उत्तरदायी पाये गये हैं। भारत में पादप परजीवी सूत्रकृमियों द्वारा विभिन्न 24 फसलों में सालाना लगभग 21000 मिलियन रूपयों की राष्ट्रीय क्षति का अनुमान है।

 

प्रकृति में हानिकारक सूत्रकृमियों के अतिरिक्त कुछ लाभदायक सूत्रकृमि भी हैं। कीटनाशक सूत्रकृमि अपने सहभोजी जीवाणुओं की सहायता से पोषद कीटों को 24 - 48 घंटों में मारने की क्षमता रखते हैं तथा फसलों के बहुत से कीट पीड़कों के जैविक नियंत्रण हेतु उत्तम उम्मीदवार के रूप में उभर कर आये हैं। मुक्त जीवीय सूत्रकृमि, पादप सूत्रकृमियों सहित अन्य सूक्ष्मजीवों की संख्या में नियंत्रण कर जड़ प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं तथा पोषक तत्वों का खनिजीकरण करके मृदा स्वास्थ्य को लाभ पहुंचाते हैं। विकास जीव विज्ञान में सीनोरैब्डाइटिस एंलीगैन्स एक महत्वपूर्ण सूत्रकृमि है।

 

यह संभाग, कीटविज्ञान तथा कवक व पादप रोग विज्ञान विभागों में कार्यरत दो सूत्रकृमि ईकाइयों को मिलाकर 31 दिसम्बर सन् 1966 में अस्तित्व में आया। विख्यात सूत्रकृमि वैज्ञानिक डा. ए. आर. शेषाद्रि को इस संभाग का प्रथम विभागाध्यक्ष व डा. एस. के. प्रसाद को प्रथम प्राध्यापक नियुक्त किया गया। संभाग में पादप सूत्रकृमि व उनके नियंत्रण हेतु अखिल भारतीय समन्वयिक अनुसंधान परियोजना (ए आई सी आर पी), भी कार्यरत है।