भा.कृ.अ.सं., क्षेत्रीय केन्द्र, पूसा (बिहार)

डॉ. कांत कुमार सिंह
अध्यक्ष (कार्यवाहक)
फोन : 06274-240232
ई-मेल: head_bihar[at]iari[dot]res[dot]in, ashishkumar[at]iari[dot]res[dot]in

 

 भा.कृ.अ.सं. क्षेत्रीय केन्द्र, पूसा बूढ़ी गंडक नदी के किनारे U आकार में  दक्षिण-पश्चिम की ओर बिहार के समस्तीपुर जिले में 52.0 मी. औसत समुद्र तल ऊंचाई तथा 25.980 N व 85.670 E अक्षांश के बीच स्थित है। 5 जुलाई 1784 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने घोड़ा प्रजनन अश्व फार्म के लिए भूमि अधिगृहीत की थी, लेकिन इसके नब्बे वर्ष बाद 1874 में ग्रंथि रोग की महामारी फैलने के कारण उसे बंद कर दिया गया। वर्ष 1902 में पूसा में पशु पालन, डेरी विकास और शैक्षणिक संस्था व कृषि संस्थान के लिए योजना बनाई गई। 26 दिसम्बर 1903 में भारत सरकार ने बंगाल सरकार से सभी भूमि ग्रहण कर ली और एक अमेरिकी नागरिक मिस्टर हेनरी फिप्स द्वारा दिए गए 30,000 पाउंड के दान से पूसा में एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना हुई।
1 अप्रैल 1904 को भारत के तत्कालीन वायसराय और गवर्नर जनरल लॉर्ड कर्जन ने एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट का शिलान्यास किया। मुख्य इमारत को फिप्स प्रयोगशाला या नौलखा इमारत के रूप में लोकप्रियता प्राप्त हुई। वर्ष 1905 में एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट में 5 विभाग (कृषि, गोपशु प्रजनन, रसायन विज्ञान, आर्थिक वनस्पतिविज्ञान और कवकविज्ञान) आरंभ किए गए। वर्ष 1907 में इस संस्थान में जीवाणु विज्ञान इकाई जोड़ी गई। एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट का नाम 1911 में इम्पीरियल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च रखा गया और 1919 में इसे इम्पीरियल एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट का नाम दिया गया। 15 जनवरी 1934 को दोपहर 2 बजे आय भयंकर भूकंप से संस्थान अर्थात फिप्स प्रयोगशाला की मुख्य इमारत क्षतिग्रस्त हो गई और 19 जुलाई 1936 को यह संस्थान दिल्ली में हस्तांतरित किया गया। 7 नवम्बर 1936 को दिल्ली में संस्थान की नई इमारत का उद्घाटन किया गया। पूसा में बोटेनिकल सब-स्टेशन नाम की एक छोटी इकाई बची रह गई और 1969 में बोटेनीकल सब-स्टेशन को क्षेत्रीय अनुसंधान केन्द्र का नाम दिया गया तथा 1975 में इस क्षेत्रीय अनुसंधान केन्द्र को भा.कृ.अ.सं. क्षेत्रीय केन्द्र, पूसा, बिहार के रूप में प्रौन्नत किया गया।


अधिदेश

  • उत्तर भारत में संसाधन की कमी वाली स्थितियों के अंतर्गत गेहूं, मक्का और अरहर की उच्च उपजशील किस्मों का विकास
  • देश में गेहूं उत्पादन के लिए प्रमुख खतरे के रूप में उभरी गेहूं की पत्तों के रोगों की प्रतिरोधी किस्मों की छंटाई और विकास के लिए राष्ट्रीय केन्द्र के रूप में कार्य करना।
  • भा.कृ.अ.सं. की गेहूं, मक्का, अरहर और पपीता की किस्मों के नाभिक, प्रजनक व संस्थान के बीज का उत्पादन