अनुसंधान
सूक्ष्मजीव विज्ञान संभाग में सोयाबीन के लिए टीकों के वाणिज्यिक उत्पादन में अग्रणी भूमिका निभाई है जिससे भारत सरकार को अमेरिका से सोयाबीन के टीकों के आयात को बंद करने में सहायता मिली है। राइज़ोबियम तथा एजोटोबैक्टर के पीट आधारित गुणवत्ता नियंत्रण प्राचलों को तैयार करने की विधि का भारत में पहली बार मानकीकरण किया गया है तथा यह संभाग भारतीय मानक ब्यूरो को विभिन्न जीवाण्विक टीकों के गुणवत्ता नियंत्रण संबंधी मानक तैयार करने में मार्गदर्शन प्रदान कर रहा है।
भारतीय मिट्टियों में जड़ की गांठ वाले जीवाणुओं के सर्वेक्षण तथा विलगन पर पीएल-480 स्कीम से महत्वपूर्ण फलीदार फसलों के लिए राइज़ोबियम के देसी कारगर प्रभेदों की उपस्थिति व वितरण से संबंधित आंकड़े उपलब्ध हुए हैं। तदनुसार तत्काल संदर्भ के लिए विभिन्न फलीदार फसलों के राइज़ोबियम मानचित्र तैयार किए गए हैं। लवणता और क्षारीयता वाले शुष्क क्षेत्रों और आर्द्र अम्लीय मिट्टियों के लिए कैल्शियम कार्बोनेट के साथ टीका लगाए गए बीज की पेलेटिंग के परिणामस्वरूप जीवाणुओं की बेहतर स्थापना हुई और इससे पौधों की जड़ों में गांठें भी अच्छी बनीं। संभाग में राइज़ोबियम, साइनोबैक्टीरिया तथा कृषि की दृष्टि से महत्वपूर्ण कई अन्य जीवाणुओं व कवकों का जननद्रव्य संकलन है। अनाजों, मोटे अनाजों, कपास, प्याज, फलीदार फसलों व तिलहनों (मूंगफली और सोयाबीन) जैसी फसलों के लिए नाइट्रोजन स्थिर करने वाले सूक्ष्मजीवों (नामत: राइज़ोबियम, एजोटोबैक्टर, एज़ोस्पिरलम, साइनोबैक्टीरिया) की पहचान व चयन किया गया है। पादप वृद्धि को बढ़ाने वाले राइज़ोबैक्टीरिया प्रोटेयेस वलगैरिस तथा कुर्थिया पर पहली रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। अनेक फसलों के लिए उपयुक्त अनेक पादप बढ़वार प्रवर्धक राइज़ोबैक्टीरिया विलगित किये गए हैं व उनका लक्षण वर्णन किया गया है।
वर्तमान में इनका गहन फील्ड मूल्यांकन किया जा रहा है। विविध प्रकार के आवासों से अनेक नए सूक्ष्मजीव विलगित किये गए हैं और इन्हें कृत्रिम जैवबहुलकों (बायोपॉलीमर्स) तथा कुछ नाशकजीवनाशियों के अपघटन में उपयोगी पाया गया है। एस्पर्जिलस, ट्राइकोडर्मा और फेनरोकीट जैसे कारगर सेल्यूलोलाइटिक सूक्ष्मजीवों के उपयोग के माध्यम से कम्पोस्टिंग की प्रक्रिया में तेजी लाई गई है जिससे कम्पोस्ट की गुणवत्ता में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। एएमएफ टीके से प्याज, बाजरा और मूंग, सोयाबीन, अरहर और चना जैसी फलीदार फसलों की उपज में वृद्धि हुई है। नियंत्रित स्थितियों के अन्तर्गत वैसीकुलर-आरबसकुलर माइकोराइज़ी कवक के व्यावहारिक प्रोपेलॉग को बढ़ाने पर अधिक प्रयास किये जा रहे हैं। एज़ोटोबैक्टर को गेहूं, मक्का, कपास, ज्वार, सरसों, फलों व सब्जियों जैसी अनेक फसलों के लिए व्यापक श्रेणी के उपयोग वाले टीके के रूप में पहचाना गया है। प्रयोगशाला स्थितियों के अन्तर्गत पौधे की वृद्धि को प्रवर्धित करने वाले पदार्थों के उत्पादन का प्रदर्शन किया गया है। आईएए, जि़ब्रैलिक अम्ल, साइडेरोफोर, अनेक मृदा वाहित पादप रोगजनकों जैसे फ्यूजे़रियम, आल्टरनेरिया, सिफेलोस्पोरियम, हेलमिन्थोस्पोरियम आदि के विरूद्ध सक्रिय विटामिन व एंटीबायटिक्स जैसे यौगिक प्रयोगशाला में तैयार किये गए हैं। इनके लिए एज़ोटोबैक्टर, पिनिबैसीलस जैसे अनेक जीवाणुओं का उपयोग किया गया है। बढ़वार, नत्रजन स्थिरीकरण तथा प्रतिबल सुसंगतता के संदर्भ में भली प्रकार लक्षण वर्णित एकशैवालीय (यूनिएलगल) संवर्धनों से युक्त साइनोबैक्टीरिया का जननद्रव्य संकलन तैयार किया गया है।
भारतीय धान के खेतों में नील हरित शैवाल (बीएजी) की वितरण पद्धति का पता लगाया गया है। इकहरे वंश एनाबीना के आकृतिविज्ञानी, जैव रासायनिक तथा आनुवंशिक विविधता का विश्लेषण किया गया है जो भारत की विविध कृषि पारिस्थितिकियों से पृथक किये गए हैं। इन पृथक्करों की संख्या 70 है। चावल और गेहूं के पौधों के जड़ क्षेत्र में पादपरोगजनक कवकों के पौधों में बढ़वार प्रवर्धन या जैव नियंत्रण में उनकी भूमिका और अन्तर/अन्तराकोशिका संबंधों के माध्यम से इन फसलों में साइनोबैक्टीरिया के परिस्थितिविज्ञानी महत्व का पता लगाया गया है तथा इसके लिए परासंरचनात्मक व आण्विक युक्तियों का उपयोग किया गया है।विभिन्न नील हरित शैवालों के प्लाज्मिड प्रोफाइलों से सीसीसी डीएनए तथा चयापचयजी (मैटाबॉलिक) क्रियाओं के बीच कोई सह-संबंध नहीं पाया गया, यद्यपि प्लाज्मिडों के आकार व उनकी संख्या में बहुत भिन्नता थी। अनेक हैटरोसिस्टस तथा गैर-हैटरोसिस्टस साइनोबैक्टीरिया में Nif जीन संगठन का विश्लेषण किया गया। गैर-हैटरोसिस्टस स्वरूपों- प्लेक्टोनेमा, लिंगब्या से xisA जीन का पता चला जो सामान्यत: केवल गैर-हैटरोसिस्टस स्वरूपों में उपस्थित होता है।सिस्टोनेमा, लिंगब्या, प्लेक्टोनेमा, फॉरमिडियम, एनासिस्टिस, एफएनओ काप्सा और क्लोरेला के विरूद्ध प्रभावी एक कवकनाशी इन्स्टाकिल के विकास से कवकनाशी की सांद्रता में वृद्धि के साथ जीवद्रव्य में कमी आने की प्रवृत्ति प्रदर्शित हुई।
एज़ोला प्रजातियों को प्रयोगशाला व ग्रीनहाउस दोनों स्थितियों में रखा जा रहा है तथा इनका उपयोग जैवोपचार के लिए मॉडल प्रणाली के रूप में किया जा रहा है और इसके साथ ही इन्हें चावल की फसल में हरी खाद/जैव उर्वरक के रूप में नेमी रूप में डाला जा रहा है। एज़ोला प्रजातियों और उनके साइनोबियॉन्ड ने इस सस्यविज्ञानी दृष्टि से महत्वपूर्ण गुण के संबंध में एक रुचिकर पहलू उजागर किया है।
चावल-गेहूं फसल प्रणाली में नील हरित शैवाल तथा एजोला का उपयोग करके किये गए गहन खेत परीक्षणों से फसल उपज में बढ़ोतरी तथा उन्नत मृदा उर्वरता में सुधार की दृष्टि से इनकी उपयोगिता सिद्ध हुई है। बासमती चावल में जैविक खेती संबंधी कार्यों (केंचुए की खाद, नील हरित शैवाल और एज़ोला का उपयोग) से भी इसके व्यावसायीकरण में आशाजनक स्थिति दिखाई दी है।