डॉ. राज सिंह सस्यविज्ञान संभाग
अध्यक्ष एवं प्रधान वैज्ञानिक
फोन: 011-25841488
फैक्स: 011-25841488
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वर्ष 1905 में जब पूसा, बिहार में इम्पीरियल एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना हुई थी, तब वहां फसल और पशु प्रजनन अनुभाग आरंभ किया गया था। सस्यविज्ञान संभाग की स्थापना 1923 में फार्म के प्रबंधन, प्रशिक्षण तथा डिप्लोमा दिए जाने के उद्देश्य से की गई। वर्ष 1936 में जब यह संस्थान नई दिल्ली स्थित अपने वर्तमान स्थान पर लाया गया तो इस संभाग ने अपने अनुसंधान कार्यक्रम का पुनर्गठन किया। आरंभ में कृषि स्नातकों के लिए एक वर्ष का प्रशिक्षण पाठ्यक्रम चलाया गया जो 1945 तक चलता रहा। वर्ष 1951 में गोपशु प्रजनन कार्यक्रम करनाल में स्थापित डेयरी फार्म को स्थानांतरित कर दिया गया। 'एसोसिएट आईएआरआई' का द्विवार्षिक डिप्लोमा पाठ्यक्रम 1946 में आरंभ किया गया जो 1958 तक चलता रहा और प्रत्याशियों को 'एसोसिएट आईएआरआई' की उपाधियां प्रदान की गईं। 1947 से 1959 तक कुल 230 प्रत्याशियों को ये उपाधियां दी गईं। वर्ष 1958 में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान को मानद विश्वविद्यालय का दर्जा प्रदान किए जाने के पश्चात 1960 से इस संभाग में एमएस.सी. व पीएच.डी. की उपाधियां दिए जाने के लिए स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम आयोजित किए गए। 1960 से 2005 के बीच कुल 224 छात्रों की एम.एससी. की तथा 397 छात्रों को पीएच.डी. की उपाधियां प्रदान की गईं। 1940 के दशक से लेकर 1950 के दशक तक विभिन्न संभाग बने जो इस संभाग से ही उभरे थे। इनमें से प्रमुख हैं कृषि अभियांत्रिकी, कृषि प्रसार और सूक्ष्मजीवविज्ञान। इसके अतिरिक्त इस संभाग से आईएएसआरआई, सीआरआईडीए, पीडीसीएसआरऔर एनडीआरआई जैसे संस्थानों का भी जन्म हुआ।

संभाग के अधिदेश इस प्रकार हैं :

  • टिकाऊ आधार पर किसानों के लिए उपयुक्त सस्यविज्ञानी प्रौद्योगिकी की नई संकल्पनाएं और दृष्टिकोण विकसित करके सस्यविज्ञानी अनुसंधान में नेतृत्व प्रदान करना।
  • प्रमुख फसल प्रणालियों के लिए टिकाऊ आधार पर उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने हेतु उचित फसल उत्पादन प्रौद्योगिकियों का विकास
  • रासायनिक उर्वरकों के संतुलित उपयोग, कार्बनिक खादों, फसल अपशिष्टों तथा जैव-उर्वरकों के पर्यावरणीय दृष्टि से ठोस और आर्थिक रूप से व्यावहारिक उपयोग की विधियों का विकास, ताकि अनाजों, दलहनों, तिलहनों तथा सब्जी फसलों की टिकाऊ उच्च उत्पादकता के लिए इन तकनीकों का उपयोग किया जा सके।