डॉ. नयन अहमद मृदा विज्ञान एवं कृषि रसायन विभाग
अध्यक्ष
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भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान खेत की मिट्टी की उपजाऊपन का नक्शा अब उपलब्ध हैं

 

भारत में कृषि के क्षेत्र में वैज्ञानिक अनुसंधान एवं शिक्षा को तत्कालीन वायसराय एवं गवर्नर जनरल लॉड कर्ज़न के शासन काल (1898-1905) के दौरान प्रमुख बढ़ावा दिया गया। अमेरिकन परोपकारी तथा लॉर्ड कर्ज़न के पारिवारिक मित्र श्री हेनरी फिप्स द्वारा 30000 डॉलर का उदार दान भारत के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को उनकी परिषद को सौंपा गया (4 जून 1903 की सं.29), ताकि लोअर बंगाल (अब बिहार) में स्थित पूसा के गवर्नमेंट स्टेट पर (जो तब तक अनुपयोगी पड़ा था) एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट एंड कॉलेज की स्थापना की जा सके। विशेषज्ञ समिति ने देहरादून में प्रस्तावित वैकल्पिक स्थल को स्वीकृति नहीं प्रदान की थी। इस योजना को अगस्त 1903 में ब्रिटिश कैबिनेट की स्वीकृति प्राप्त हुई और इस प्रकार, भारत सरकार को देश में प्रथम पूर्ण कालिक कृषि अनुसंधान संस्थान स्थापित करने का अवसर प्राप्त हुआ। ऐसा उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में इंग्लैंड में जॉन बैनेट लुईस द्वारा रोथम्स्टेड एक्सपेरिमेंटल स्टेशन स्थापित करके पहले किया जा चुका था और भारत में इस संस्थान की स्थापना उसी के अनुसरण में की गई।

 

एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट एंड कॉलेज की स्थापना के पश्चात डॉ. जे.डब्ल्यू लैदर तथा अन्य विशेषज्ञों को देहरादून से पूसा स्थानांतरित किया गया (मई 1906 में)। इस संस्थान को अब तक इम्पीरियल का दर्जा प्राप्त हो चुका था और बाद में चलकर इसका नामकरण इम्पीरियल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च रखा गया। डॉ. लैदर प्रथम इम्पीरियल एग्रीकल्चरल कैमिस्ट बने और उनके सहयोगियों को चार अन्य अनुभागों (कृषि वनस्पतिविज्ञान, कवक विज्ञान, कीटविज्ञान एवं कृषि) की अध्यक्षता सौंपी गई। इन विशेषज्ञों को दो पद प्राप्त थे, भारत सरकार के विशेषज्ञ का पद और संस्थान के अनुभागों के अध्यक्षों का पद जो सभी एक निदेशक के अधीन थे।

डॉ. जे.डब्ल्यू.लैदर को भारत में मृदा विज्ञान एवं कृषि रसायनविज्ञान का जनक कहा जा सकता है। उन्होंने भारत में मृदाओं को चार प्रमुख समूहों या प्रविष्टियों नामत: जलोढ़, काली, लाल तथा लेटराइट में बांटकर उनके गुण-निर्धारित करने की देशी विधि का विकास किया। मृदाओं के वर्गीकरण में अब तक चाहे कितनी भी प्रगति हो गई हो लेकिन ये मोटे-मोट श्रेणीकरण अब भी मृदा वैज्ञानिकों, सस्यविज्ञानियों तथा भूमि उपयोग से संबंधित अन्य कर्मियों के लिए अत्यधिक सार्थक बने हुए हैं। एक अन्य उत्कृष्ट योगदान जो डॉ. लैदर के नाम से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है, वह कावनपुर (अब कानपुर) और कोयम्बत्तूर में किए गए स्थाई खाद संबंधी प्रयोग हैं (दीर्घ श्रेणी के आधार पर मृदा की उत्पादकता के आलोचनात्मक मूल्यांकन के लिए)। दुर्भाग्य से कावनपुर का प्रयोग 20वीं शताब्दी के 30 के दशक के दौरान बंद कर दिया गया। तथापि, यह देखकर संतोष होता है कि कोयम्बत्तूर के प्लॉट अब भी पर्याप्त अच्छी स्थिति में बने हुए हैं। इस श्रृंखला का तीसरा प्रयोग पूसा में शुरु किया गया (1909-10)। बाद में चलकर यह प्रयोग वहां से भी गायब हो गया। डॉ. लैदर ने भली-भांति सुसज्जित ऐसे पॉट कल्चर हाउस का स्वयं अपनी देखरेख में निर्माण करवाया जिसकी सामान्यत: कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन्होंने प्रसिद्ध ड्रेन गेज (इन सीटु लाइसीमीटर्स) का निर्माण रोथम्स्टेड डिजाइन पर करवाया। प्रथम विश्व युद्ध आरंभ होने पर 1916 में डॉ. जे.डब्ल्यू.लेदर स्थाई रूप से भारत से चले गए। उनके द्वारा स्थापित की गई सुविधाओं को 1934 में बिहार में आए भयंकर भूकंप से अपूर्णीय क्षति हुई और ये समस्त सुविधाएं सदैव के लिए नष्ट हो गईं।

 

20वीं शताब्दी के प्रथम दशक के मृदा विज्ञान संबंधी कार्यों को डॉ. लैदर के कार्यों से जोड़कर देखा जाना चाहिए। 'ऑफिशियल एंड रिकमेंडेड मैथड ऑफ एनालिसिस' शीर्षक से तैयार किए गए एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूसा बुलेटिन सं.8 (1907) से मृदा विज्ञान पर अनुसंधान कार्य की शुरुआत मानी जा सकती है। यदि फास्फोरस विषय की बात करें तो इस संदर्भ में डॉ. एस.एल.दास (1926) ने पूसा में कैल्केरियस मृदाओं में पौधों को उपलब्ध फास्फोरस के लिए पोटेशियम कार्बोनेट निष्कर्षण की विधि का विकास किया, जबकि डायर की उत्कृष्ट सिट्रिक एसिड विधि इस मामले में असफल हो चुकी थी। यह अब भी मृदा परीक्षण की सर्वाधिक व्यापक रूप से प्रयुक्त होने वाली ओलसेन्की क्रियाविधि के लिए उदाहरण स्वरूप है (सोडियम बाइकार्बोनेट निष्कर्षणीय फास्फोरस)। संभाग के मुख्य अधिदेश इस प्रकार हैं :

  • मूल मृदा विज्ञानी अध्ययन और मृदा संसाधनों का मूल्यांकन व प्रबंध
  • मृदाओं के भौतिक, रासायनिक एवं जैव वैज्ञानिक गुणों के मूलभूत एवं व्यावहारिक पहलुओं पर अनुसंधान
  • मृदा उर्वरता में सुधार व उसका अनुरक्षण
  • मृदा और पौधों में उर्वरकों एव खादों की अंतरक्रिया
  • मृदा सुधार के रूप में कार्बनिक अपशिष्टों का अनुप्रयोग तथा मृदा स्वास्थ्य की निगरानी
  • मृदा परीक्षण और फसल अनुक्रिया सह-संबंध संबंधी अध्ययन।
  • उर्वरक अनुप्रयोग पर फार्म परामर्शदायी सेवाओं के आधार पर मृदा परीक्षण