डॉ. एम. सिवास्वामी
अध्यक्ष

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यह केन्द्र भा.कृ.अ.प. की 'समन्वित गेहूं रतुआ नियंत्रण स्कीम' के अंतर्गत 1954 में भारत के तमिल नाडू राज्य के नीलगिरि जिले की आकर्षक व मनोहर विलिंग्टन घाटी में स्थापित किया गया था। केन्द्र आरंभ में रक्षा मंत्रालय से पट्टे पर ली गई भूमि पर स्थापित किया गया था और बाद में प्रधान मंत्री के सचिवालय के उच्च स्तर पर यह निर्णय लिया गया कि इस भूमि को रक्षा मंत्रालय से स्थायी रूप से भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद को हस्तांतरित कर दिया जाए। भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री को लिखे गए पत्र में नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. एन.ई.बोरलॉग की सिफारिश को धन्यवाद कि उसके कारण 1988 में रक्षा मंत्रालय इस केन्द्र की भूमि पर पुन: अपना कब्जा नहीं कर सका। चूंकि नीलगिरि पहाड़ियां जहां यह केन्द्र स्थित है मध्य भारत तक गेहूं के तना और पत्ता रतुओं के संचारण के मुख्य स्रोत के रूप में कार्य करती हैं, अत: इस स्रोत क्षेत्र पर रोगजनकों का नियंत्रण लक्षित क्षेत्रों, विशेषकर तटवर्ती और मध्य भारत में रतुआ महामारी प्ररुपों से बचाव के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसलिए वेलिंगटन में इस केन्द्र की स्थापना गेहूं की रतुआ प्रतिरोधी किस्मों को विकसित करने के अधिदेश से की गई थी और इसमें भी दक्षिण भारत में व्यापक रूप से उगाई जाने वाली गेहूं की डाइकोकम किस्मों और दक्षिणी पहाड़ियों पर उगाई जाने वाली गेहूं की किस्मों में गेहूं के रतुआ के आरंभिक संचारण को रोकने के लिए विशेष ध्यान दिया गया क्योंकि यह रतुआ दक्षिण भारत की पहाड़ियों से लेकर तटवर्ती और मध्य भारत तक व्याप्त होता है। भारत का पहला डाइकोकम गेहूं जिसे एनपी 200 नाम दिया गया। ऋषि घाटी आंध्र प्रदेश के स्थानीय संकलन से विकसित किया गया। इस केन्द्र ने भारत में हरित क्रांति को लाने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की क्योंकि भारत में मैक्सिको से पहली बार लाई गई सीमिट बौने गेहूं की किस्मों के बीज 1962 की ग्रीष्म ऋतु में यहां प्रगुणित किए गए और उसी बीज का उपयोग दिल्ली में 1962-63 के रबी मौसम के दौरान छोटे पैमाने पर प्रदर्शनों के आयोजन में किया गया। पूरे वर्ष रतुआ संचारण की उपलब्धता और गेहूं की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु के कारण भारत के गेहूं वैज्ञानिक इस केन्द्र को रोग प्रतिरोधी सामग्री की छंटाई, पीढ़ियों को आगे बढ़ाने, महत्वपूर्ण प्रभेदों के आरंभिक बीज प्रगुणन और नए संकरों को तैयार करने के लिए करते हैं। आगे चलकर यह केन्द्र गेहूं के लिए गैर-मौसमी केंद्र के उत्कृष्‍ट केन्द्र के रूप में विकसित हुआ और इसके साथ ही पूरे देश के लिए अन्य शरदकालीन फसलों के गैर-मौसमी नर्सरी केन्द्र के रूप में भी फला-फूला।
प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय गेहूं वैज्ञानिक जैसे डॉ. नॉर्मन ई.बोरलॉग, डॉ. आर.जी.एंडरसन, डॉ. एम.एस.स्वामीनाथन, डॉ. आर.ए.मैकिन्टोश, डॉ. वाटसन, डॉ. रॉय जॉनसन आदि नियमित रूप से इस केन्द्र में आते रहते हैं। जाने-माने गेहूं आनुवंशिक विद डॉ. आर.एन.साहनी से प्राप्त की गई अमूल्य सामग्री का प्रयोग करके यहां अस्सी के दशक के मध्य में प्रतीप संकर कार्यक्रम आरंभ किया गया। इसके परिणामस्वरूप काले और भूरे रतुओं के पूर्ण रूप से या मध्यम स्तर के प्रतिरोधी वांछित जीनों को हस्तांतरित करने में सहायता मिली। हस्तांतरित किए गए विदेशी जीन प्रभावी थे और अनेक उच्च उपजशील वाणिज्यिक किस्मों में उन्हें हस्तांतरित करने के लिए केवल 4-5 प्रतीप संकर ही पर्याप्त थे और यदि ऐसा न हुआ होता तो ये रतुआ रोगजनक के संवेदनशील पथ बन गए होते। प्रतीप संकरण का कार्यक्रम अब भी जारी है और भारत की अब तक जारी की गई गेहूं की लगभग सभी किस्मों में जीन हस्तांतरण का कार्य किया गया है। इस कार्यक्रम के परिणामस्वरूप गेहूं की अनेक तथाकथित 'उन्नत' किस्में विकसित हुई हैं जिनका बीज देश के सभी गेहूं प्रजनकों, रोगविज्ञानियों व अन्य संबंधित वैज्ञानिकों को उपलब्ध कराया गया है। अंतर-संस्थागत सहयोग के माध्यम से Lr24/Sr24, Lr19 और Sr 25 से युक्त अनेक किस्में जारी की गई हैं। इनमें से कुछ हैं : मध्य क्षेत्र के लिए एचडब्ल्यू 2004, उत्तर-पूर्वी मैदानी क्षेत्रों के लिए एचडब्ल्यू 2045, तटवर्ती क्षेत्र के लिए एनएसीएस 6145/एचडब्ल्यू 2043 और उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्रों के लिए सोनक।
आरंभ में इस केन्द्र के पास केवल 7.5 एकड़ भूमि थी लेकिन बाद में 36.0 एकड़ भूमि रक्षा मंत्रालय से ली गई (अब भा.कृ.अ.प. को स्थायी रूप से हस्तांतरित कर दी गई है)। रॉकफेलर फाउंडेशन के डॉ. एंडरसन ने बुल्डोजरों की सहायता से इस भूमि को समतल किया और आज भी जो टेरेस यहां हैं उनमें से अधिकांश डॉ. एंडरसन ने ही तैयार करवाई थीं। हाल ही में लगभग 5 एकड़ बंजर भूमि जो राज्य के पास लगभग 50 वर्षों से खाली पड़ी थीं, अधिग्रहीत की गई और उसे सुप्रबंधित फार्म क्षेत्र में परिवर्तित किया गया। इस केन्द्र का उपयोग गेहूं वैज्ञानिकों द्वारा विशेष रूप से ब्रैसिका के रतुओं और सफेद रतुओं सहित गेहूं के रोगों के विरुद्ध छंटाई के लिए प्राकृतिक फाइटोट्रॉन के रूप में किया जाता है। रतुआ रोग प्ररुपीकरण और रतुआ प्रतिरोधी जीन पास्चुलेशन पर काम करने के लिए इस केन्द्र में कांच घरों की एक श्रंखला मौजूद है। स्वयं विनियमित तापमान और आर्द्रता की सुविधाओं से युक्त छह नए पॉली हाउस भा.कृ.अ.सं. के ग्याहरवीं योजना के अंतर्गत आबंटित की गई निधि के द्वारा निर्मित किए जाएंगे। केन्द्र में दो प्रयोगशाला एवं कार्यालय परिसर, एक पक्का गहाई फर्श, बीज भंडारण के लिए कक्ष, भूमिगत सिंचाई प्रणाली जो सम्पूर्ण फार्म क्षेत्र की सिंचाई करती है और 12 व्यक्तियों के लिए भली प्रकार सुसज्जित विश्राम गृह है। इस केन्द्र के अधिदेश हैं :

  • गेहूं, जौ और ट्रिटिकेल के लिए राष्ट्रीय गैर-नर्सरी की सुविधा प्रदान करना। ये सुविधाएं सरसों, मटर, मसूर, कुसुम, गन्ना आदि जैसी फसलों के लिए भी उपलब्ध कराई जाती हैं।
  • दक्षिणी पहाड़ियों की कृषि-परिस्थिति विज्ञानी स्थितियों के अंतर्गत उगाए जाने के लिए उपयुक्त गेहूं की रोग प्रतिरोधी एवं उच्च उपजशील किस्मों का प्रजनन।
  • गेहूं रतुआ रोग प्ररूपण और रतुआ प्रतिरोध जीन का पास्चुलेशन।
  • भारतीय गेहूं की लोकप्रिय उच्च उपजशील किस्मों में स्थायी रतुआ प्रतिरोध के लिए जीनों की पिरामिडिंग।
  • तटवर्ती और मध्य भारत में रतुआ महामारी के लिए उत्तरदायी प्राथमिक रतुआ संरूप के भंडार को अवरोधित करने के उद्देश्य से दक्षिणी पहाड़ी श्रंखलाओं में रतुआ प्रतिरोधी किस्मों को लोकप्रिय बनाना।
  • दक्षिणी पहाड़ियों, मध्य और तटवर्तीय भारत में मौजूद रोग प्ररूपों का उपयोग करते हुए गुण-प्ररूपण रतुआ अनुक्रिया के माध्यम से भारतीय गेहूं के जननद्रव्य में रतुआ प्रतिरोध की आनुवंशिकी पर अध्ययन।
  • दक्षिणी पहाड़ी क्षेत्र में अखिल भारतीय गेहूं और जौ सुधार परीक्षणों का समन्वयन।

 

 
फार्म और कार्यालय इमारत का एक दृश्य
 
नीलगिरि पहाड़ियों की वादियों के आगोश में स्थित विश्राम गृह